संयुक्त परिवार कोई दकियानूसी सामाजिक परंपरा नहीं. इस में परिवार के सदस्यों की भावनात्मक सुरक्षा, सहयोग, सहभागिता और घर की सुरक्षा बनी रहती है. खेद की बात है कि संयुक्त परिवार की परंपरा अब टूटन और बिखराव के कगार पर है. आज के युग में इसे आउटडेटेड माना जाता है. लोगों को अधिक स्वतंत्रता, अधिक उत्साह और अधिक उत्तेजना चाहिए जो उन्हें संयुक्त परिवार की अपेक्षा छोटे परिवार में दिखाई देती है.

बिजनैस एग्जीक्यूटिव विजय सिन्हा और सिविल इंजीनियर अजय सिन्हा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के गुलमोहर पार्क क्षेत्र में अलगअलग बंगलों में रहते हैं. केवल 2 से 3 सदस्यों के ये छोटे परिवार अलग रहने में अधिक स्वतंत्र और उत्साहित नजर आते हैं. इन्हीं की तरह दिल्ली जैसे महानगरों में ही नहीं, अनेक राज्यों में कई परिवारों के सदस्य ऐसे हैं जिन्होंने एक छत के नीचे बड़े परिवारों में न रहते हुए अपने लिए अलग घर बनाए हैं. हालांकि केवल उत्साह और स्वतंत्रता की चाह ने न केवल लोगों को एकदूसरे से दूर किया है और आत्मकेंद्रित बनाया है बल्कि पर्यावरण को भारी मात्रा में क्षति भी पहुंचाई है.

एक संयुक्त परिवार बिखर कर 3-4 घरों में रहने लगा है. छोटे परिवारों की बढ़ती संख्या के चलते ऊंचीऊंची इमारतें बनाई जा रही हैं. जंगलों को काट कर शहर बसाने के लिए कंकरीट के जंगल खड़े किए जा रहे हैं जिस से प्रकृति में असंतुलन हो रहा है और पर्यावरण प्रभावित हो रहा है. कैसे, आइए नजर डालें.

पानी की खपत

संयुक्त परिवार के घर की सफाई में जो पानी खर्च होता था वह उस परिवार के विभाजित हुए 3 अलगअलग घरों में अब तीनगुना खर्च हो रहा है, जिस से पानी की कमी की समस्या उत्पन्न होती है. दिल्ली सरकार के सौजन्य से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, दिल्ली में प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति पानी की खपत गैलन में 1996 में 43.76 थी, 1997 में 80.24 हुई. 1998 में 94.11, 1999 में 94.09, 2000 में 91.15, 2002 में 93.04, 2010 में 49 और 2013 में 90 गैलेन की वृद्धि हुई. भविष्य में इस के क्या भयंकर परिणाम होंगे, अंदाजा लगाया जा सकता है.

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