देश में आधुनिक कहलाने की पहली शर्त इंग्लिश बोलना आना हो गई है तो इस की अपनी अलग वजहें भी हैं. लेकिन सरकारी स्तर पर इंग्लिश को अनावश्यक प्रोत्साहन दिए जाने से हिंदी की ज्यादा दुर्दशा हुई है. जानिए, कैसे.
कहते हैं रुतबा हकीकत से ज्यादा मनोविज्ञान है. जब हिंदुस्तान में हम किसी को इंग्लिश में धाराप्रवाह बोलते देखते हैं तो उस के बारे में बिना कुछ जाने यह मान लेते हैं कि वह पढ़ालिखा है. वह खातेपीते संपन्न वर्ग से नाता रखता है. वह उदार है. वह खुलेदिल का है. वह जानकारी से परिपूर्ण है. वह भद्र है.
दरअसल, इंग्लिश हिंदुस्तान में महज भाषा नहीं है, इंग्लिश एक वर्ग है. एक क्लास है. इंग्लिश के साथ जुड़ा यही मनोविज्ञान उसे न सिर्फ खास बनाता है बल्कि उस के और दूसरी भारतीय भाषाओं को बोलने वालों के बीच एक खास अंतराल भी जाहिर करता है.
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सवाल है क्या यह अपनेआप हो गया है? क्या यह महज 250 साल की अंगरेजों की गुलामी का नतीजा है? निश्चितरूप से इंग्लिश के इस प्रभुत्व के पीछे भारत में अंगरेजीराज का इतिहास भी बड़ी वजह है. लेकिन महज अंगरेजीराज के इतिहास की बदौलत ही आज भी इंग्लिश भारत में राज नहीं कर रही, बल्कि इंग्लिश के इस मौजूदा प्रभुत्व के पीछे कहीं न कहीं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता व सत्तासीन वर्ग का भी हाथ है.
जैसे वेदकालीन भारत जिस काल को हम भारत का स्वर्णिम काल कहते हैं, में संस्कृत सत्ता और प्रभुत्व वर्ग की भाषा थी. उस का रुतबा था. उस से शासकत्व और स्वामित्व की मौजूदगी झलकती थी. आजकल कमोबेश वही स्थिति इंग्लिश को ले कर है. इंग्लिश भी आज महज भाषा नहीं है. यह एक शासकीय प्रभाव का पर्याय है. इस के लिए किसी बड़े उदाहरण को जाननेसमझने की जरूरत नहीं है. रोजमर्रा की जिंदगी के छोटेछोटे अनुभवों से आप इस सच को जान सकते हैं.
मसलन, अगर बैंक आप के किसी काम में अड़चन पैदा करता है और कहता है काम करने के लिए एप्लीकेशन दो, तो अगर आप टूटीफूटी इंग्लिश में भी एक प्रार्थनापत्र लिख देते हैं तो 99.9 फीसदी यह सुनिश्चित है कि क्लर्क पलट कर आप से आप के लिखे हुए में किसी स्पष्टता की मांग नहीं करेगा. वह एक नजर उस पर डालेगा मानो पलक झपकते ही उसे आप की पूरी बात व परेशानी समझ में आ गई हो और आप का काम फटाफट हो जाएगा.
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दरअसल, यह इंग्लिश का प्रभाव है. कुरसी पर बैठा बैंक क्लर्क यह आभास नहीं होने देना चाहता कि उसे इंग्लिश में कोई दिक्कत है या आप के लिखे हुए मंतव्य को इंग्लिश में होने के कारण समझने में उस को कोई कठिनाई हो रही है. इसलिए, वह बिना कुछ समझे आप के लिखे हुए को वही मानेगा जो आप मनवाना चाहते हैं. यहां तक कि अगर उसे बिलकुल समझ में नहीं आएगा तो भी वह आप के साथ मुंहजबानी बात करते हुए आप से बड़ी होशियारी से यह जान लेगा कि आप चाहते क्या हैं और फिर आप का काम कर देगा.
दरअसल, यह इंग्लिश भाषा की अद्भुत संप्रेषणीयता का कमाल नहीं है. यह हिंदुस्तानियों में मौजूद उस हीनभावना का कमाल है जिस के मौजूद रहते कोई किसी दूसरे को यह भनक नहीं लगने देना चाहता कि उसे इंग्लिश नहीं आती. इंग्लिश का इस से बड़ा और जबरदस्त असर भला क्या हो सकता है?
हद तो यह है कि भारत में इंग्लिश के विरुद्ध जिन लोगों ने आंदोलन छेड़ा, जिन तथाकथित नेताओं ने इंग्लिश को शासकीय षड्यंत्र बताया है, वे भी इंग्लिश के मोह या उस के प्रभाव के विशिष्टबोध से नहीं उबर पाए. उदाहरण के लिए, 80 के दशक में मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश में इंग्लिश के विरुद्ध खूब हल्ला मचाया. साइकिल से घूमघूम कर हिंदी के पक्ष में माहौल बनाया. लोगों को यह बताने की कोशिश की कि कैसे सरकार इंग्लिश थोप कर हिंदुस्तान के असली जनसमुदाय को सत्ता में भागीदारी से वंचित करना चाहती है. लेकिन ठीक उन्हीं दिनों नेताजी मुलायम सिंह के पुत्र और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इंग्लिश माध्यम से अपनी स्कूली व उस के आगे की पढ़ाई पूरी कर रहे थे.
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मुलायम सिंह 90 के दशक में जब सत्ता से बाहर थे, ‘अंगरेजी हटाओ, हिंदी लाओ’, ‘अंगरेजी भाषा नहीं, षड्यंत्र है, गुलामी का जनतंत्र है’ जैसे नारे लगाते रहे. वे भड़क कर यह भी कहते रहे कि जब सत्ता में आएंगे, इंग्लिश भाषा और कंप्यूटर पर प्रतिबंध लगा देंगे. लेकिन हकीकत में न वे ऐसा कर सके और न ही कभी ऐसा करेंगे. उस की बड़ी मिसाल तो यह है कि जब उन के पुत्र उत्तराधिकारी के रूप में सत्ता में लौटे तो उन्होंने जिस लोकलुभावन नारे को पूरे गाजेबाजे के साथ पूरा किया, वह पढ़ेलिखे बेरोजगारों को लैपटौप बांटना था.
एक और दिग्गज की कहानी सुनिए. ज्योति बसु देश के सब से सम्माननीय राजनेताओं में से रहे हैं. उन की गरिमा और जनसमर्थन का चुंबकत्व देश का राजनीतिक इतिहास बखूबी जानता है. 70 के दशक में जब बंगाल में कम्युनिस्ट सरकार बनी तो तमाम क्रांतिकारी परिवर्तन हुए. उन्हीं क्रांतिकारी परिवर्तनों में इंग्लिश को प्राथमिक कक्षाओं से बाहर किया जाना भी था. ज्योति बाबू ने ज्यादा ही भद्र मानुष बनने के फेर में और ज्यादा ही बंगाली मानुष बनने के दिखावे में इंग्लिश को प्राथमिक कक्षाओं से बाहर कर दिया, लेकिन उन के घर के बच्चे कौन्वैंट स्कूलों में पढ़ते रहे. यही नहीं, उस जमाने के भद्र बंगाली वर्ग ने अपने बच्चों को इंग्लिश स्कूलों में ही भेजा.
ऐसे में भला इंग्लिश का प्रभुत्व कायम नहीं होगा तो क्या होगा? जो लोग इंग्लिश के प्रभावशाली होने का रोना रोते हैं, वे इस बात को भूल जाते हैं कि जैसे ही हिंदुस्तान में किसी की हैसियत बेहतर होती है या वह हैसियत को बेहतर बनाने की कोशिश करता है तो उस कोशिश की प्राथमिकता में इंग्लिश भाषा भी शामिल होती है.
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हीनताबोध
इंग्लिश न बोल पाना सौ फीसदी हीनताबोध का प्रतीक है. हिंदुस्तान में चाहे कोईर् देशभक्ति की जितनी ही बातें क्यों न करता हो, अपनी संस्कृति और प्रादेशिकता के प्रति चाहे जितना ही गुमान न क्यों रखता हो, अगर उसे इंग्लिश नहीं आती, अगर वह सार्वजनिक तौर पर इंग्लिश में संवाद नहीं कर पाता, तो इस के लिए उस में हमेशा हीनताबोध बना रहता है.
पिछले दिनों मुंबई में फिल्मी दुनिया में प्रवेश पाने के लिए संघर्ष कर रहे तमाम लोगों से मुलाकात हुई. मैं करीब 7 लोगों के घर किसी न किसी वजह से गया और उन के संघर्ष की कहानी सुनने के दौरान मुझे 7 में से 6 लोगों के घरों के सामान में जो एक चीज बिना कोशिश किए अलग से चमकती दिखी, वह थी इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स की एक बड़ी मशहूर किताब, ‘रैपिडेक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स’.
इस किताब की कहानी भी भारत में इंग्लिश के प्रति ललक की एक मुकम्मल गाथा है. राजधानी दिल्ली से 70 के दशक में प्रकाशित यह किताब देश में सब से ज्यादा बिकने वाली कुछ गिनीचुनी किताबों में से एक है. कुछ सालों पहले इस किताब के प्रकाशक से मेरी फोन पर बात हुई थी तो उन का कहना था, ‘रैपिडैक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स की अलगअलग भारतीय भाषाओं में कोई
2 करोड़ के आसपास प्रतियां बिक चुकी हैं.’ लेकिन इस दावे से भी बड़ा और चौंकाने वाला दावा राजधानी दिल्ली में लक्ष्मीनगर स्थित एक न्यूज एजेंसी के मालिक का है, ‘हम ने अगर हजार ओरिजिनल रैपिडैक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स की किताबें बेची होंगी तो 10 हजार से ज्यादा इस की डुप्लीकेट बेची होंगी.’
कहने का मतलब यह कि रैपिडैक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स नामक किताब न सिर्फ बड़े पैमाने पर बिकी बल्कि इस की नकल कर के चोरी से छापी गई किताब भी खूब बिकी. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में इंग्लिश के प्रति किस कदर मोह है या इंग्लिश न जानने को ले कर लोगों में कितना हीनताबोध है.
एक अनुमान के मुताबिक, देश में
50 हजार से ज्यादा इंग्लिश सिखाने वाले इंस्टिट्यूट मौजूद हैं, जहां से हर महीने कोईर् 6 लाख के आसपास लोग इंग्लिश सीख कर बाहर निकलते हैं. हालांकि, यह अलग बात है कि सीआईआई के एक सर्वे के मुताबिक इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स करने वालों में से एक फीसदी भी ऐसे नहीं होते जिन्हें कोर्स कर के इंग्लिश आ जाए. इंग्लिश के प्रति जनून का अर्थशास्त्र इतना मजबूत है कि शायद ही कभी किसी भाषा के लिए उस का सौवां हिस्सा भी वजूद में आया हो.
देश में इंग्लिश सीखनेसिखाने की अर्थव्यवस्था का सालाना टर्नओवर 6,000 करोड़ रुपए से ऊपर का है, जो किसी अच्छेखासे उद्योग का टर्नओवर लगता है.
नीतिनिर्धारक जिम्मेदार
सवाल है, यह सब क्यों है? क्या सिर्फ लोगों का अनजाना और गैरसमझा जनूनभर ही इस के लिए दोषी है? नहीं? इस के लिए सरकार के साथसाथ देश का नीति निर्धारित करने वाला तबका भी जिम्मेदार है. इंटरनैट में विकीपीडिया के तहत मिलने वाली सामग्री के लिए तो इंग्लिश को मजबूरी माना जा सकता है, लेकिन क्या आप यह जानते हैं कि भारत की संसद, जो हर साल 30 से ज्यादा महत्त्वपूर्ण विषयों पर गंभीर ब्योरे वाली रिपोर्टें तैयार करवाती है, उन में से कोई भी रिपोर्ट जो संसद में पेश हो कर सांसदों में बंटनी न हो, हिंदी में या दूसरी भारतीय भाषाओं में नहीं तैयार होती.
सरकार और प्रशासनिक तबका किस तरह इंग्लिश की प्राणप्रतिष्ठा करता है, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दूसरे क्षेत्रों को तो छोडि़ए. आजादी के बाद से आज तक शिक्षा के क्षेत्र में किसी भी समिति ने अपनी बुनियादी रिपोर्ट हिंदी या किसी दूसरी भाषा में पेश नहीं की. चाहे उच्च शिक्षा के क्षेत्र के लिए यूजीसी द्वारा बनाई गई समितियां रही हों, चाहे माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम को समयसमय पर बेहतर बनाने की कवायद के तहत तैयार की गई रिपोर्टें हों, सब की सब रिपोर्टें इंग्लिश में ही तैयार होती हैं. कोईर् भी रिपोर्ट हिंदी में तैयार नहीं होती.
आप को यह जान कर हैरानी होगी कि आजादी के बाद से बनी ज्यादातर सरकारों ने भले गांधी नाम के संकटमोचन का हमेशा जाप किया हो, लेकिन 1985 तक गांधीजी का लिखा समूचा वांग्मय हिंदी में उपलब्ध नहीं था. आज भी आप राजधानी दिल्ली स्थित हिंदी दर्शन समिति और गांधी पुस्तकालय को फोन करिए, आप को गांधीजी के दिए सारे भाषण हिंदी में उपलब्ध नहीं मिलेंगे.
अनजानी साजिश
दरअसल, यह साजिश है. चाहे जानबूझ कर की जाती रही हो या एक परंपरा के तहत होती चली आ रही हो कि सरकार चाहे केंद्र की हो, चाहे राज्य की हो, चाहे क्षेत्रीय अस्मिता की पुरजोर वकालत करने वाली हो या वामपंथी अथवा समाजवादी हो, जब कोई भी राजनीतिक दल या संघ सत्ता में आता है तो वह जाने या अनजाने इंग्लिश को बढ़ावा देता है. शायद इस के पीछे वही हीनताबोध मौजूद है जो हीनताबोध भारत में जातिवाद के संबंध में है.
आप क्रांतिकारी से क्रांतिकारी दलित नेता या विचारक को लीजिए. जैसे ही वह ताकतवर हो जाता है और प्रभुत्ववर्ग के समकक्ष हो जाता है तो ब्राह्मणवाद का उस का विरोध भले मुंहजबानी तब भी बना रहता हो मगर व्यवहार में वह ब्राह्मणवाद का हिस्सा बन जाता है. यह इंग्लिश की ताकत का नमूना है जैसे विरोध और संघर्ष का परचम उठा कर ब्राह्मणवाद को नेस्तनाबूद करने की कसम खाने वाले प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उस के पैरोकार बन जाते हैं, उसी तरह इंग्लिश का विरोध करने वाले ताकत में आते ही इंग्लिश के प्रति अपने मोह को त्याग नहीं पाते.
शायद इंग्लिश के प्रति इस मोह का बड़ा कारण यह भी है कि पिछले लगभग 350 सालों से तमाम मलाई इंग्लिश के खाते में ही मौजूद रही है. सत्ता, सम्मान सबकुछ इंग्लिश के हिस्से में रहा है. इंग्लिश को बिना कहे प्रचारितप्रसारित और उसे मजबूत करने में सरकार का जबरदस्त योगदान है. 1947 में संविधान सभा में जब इंग्लिश को ले कर विचारविमर्श हो रहा था और महात्मा गांधी जिद कर रहे थे कि देश की सब से व्यापक संपर्क भाषा होने के नाते हिंदी को राजभाषा बनाया जाए तो न नेहरू उन के साथ थे और न ही अंबेडकर.
अंबेडकर ने तो बेहद दूरदर्शी बयान दिया था. उन्होंने कहा था, ‘इंग्लिश के नाम पर पूरे देश में एक सहमति बन सकती है लेकिन हिंदी या किसी दूसरी राष्ट्रीय भाषा पर इस देश में एक सहमति कभी नहीं बन सकती.’
60 और 70 के दशक में अंबेडकर की यह बात द्रविड़ आंदोलन के दौरान बेहद स्पष्ट दिखी, जब सैकड़ों ट्रेनों को आग लगाने वाले, करोड़ों की संपत्ति फूंकने वाले और हजारों की जान ले लेने वाले तमिल भाषा आंदोलन में साफसाफ कह रहे थे कि उन पर हिंदी थोपी गई तो वे अपने को हिंदुस्तान से अलग कर लेंगे.
यही वजह है कि जिस इंग्लिश को थोड़े दिनों के लिए राजभाषा इसलिए बनाया गया था क्योंकि कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक उसे संपर्क भाषा के रूप में देखा गया था, वह आज भी सत्तासीन है. इंग्लिश आज तमाम भारतीय भाषाओं की छाती पर विराजमान है और इस देश में इंग्लिश का महत्त्व कभी कम नहीं हो सकता.
इंग्लिश के पक्ष में बड़ी होशियारी से सत्ता मासूम तर्क देती है. मसलन, संविधान तैयार होने के दौरान इस बात को पुरजोर ढंग से उठाया गया कि इंग्लिश देश की अकेली सब से बड़ी संपर्क भाषा है. जबकि इंग्लिश की वास्तविकता नैशनल रीडरशिप सर्वे के मौजूदा आंकड़ों से ही पता चल जाती है. आज जबकि देश में 75 फीसदी से ऊपर साक्षरता है तब भी इंग्लिश भाषा के तमाम पत्रपत्रिकाओं की मौजूदगी सिर्फ 5 फीसदी है और पाठक संख्या के आईने में इंग्लिश का प्रभाव उस की महज 2.5 फीसदी तक की हिस्सेदारी तक सिमटा है. इस से उस झूठ का आसानी से परदाफाश हो जाता है जो जानेअनजाने सरकारें बोलती रही हैं या पेश करती रही हैं कि इंग्लिश देश की सब से बड़ी संपर्क भाषा है.
इंग्लिश के उलट, देश में 56 फीसदी लोग विशुद्ध रूप से हिंदी में संवाद कर लेते हैं, लिखपढ़ लेते हैं और धाराप्रवाह रूप से बोल लेते हैं. जबकि देश में
90 फीसदी लोग हिंदी में सहजता के साथ संवाद कर लेते हैं, भले उन का लहजा कैसा भी हो या भले वे लिखित में ऐसा न कर पाएं. जहां तक हिंदी को समझ लेने की क्षमता है, तो न सिर्फभारत देश में, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप में 80 फीसदी लोग बहुत आसानी से हिंदी समझ लेते हैं.
इस के बावजूद, सरकार हिंदी के बजाय इंग्लिश को बढ़ावा देती है. सरकार के लगभग 100 फीसदी नीतिनियामक दस्तावेज इंग्लिश में तैयार होते हैं. देश का भविष्य तय करने वाली तमाम बहसों, बैठकों में इंग्लिश के जरिए ही संवाद होता है. यह विडंबना नहीं है, बल्कि इंग्लिश को हमेशाहमेशा के लिए महारानी बनाए रखने का सरकार का षड्यंत्र भी है. दरअसल, मुट्ठीभर सत्ता वर्ग नहीं चाहता कि उस की इस ताकत पर कोई और हिस्सेदारी करे. इसीलिए, भले रस्मी तौर पर हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं के पक्ष में आंसू बहाए जाएं लेकिन वास्तविकता यह है कि हरम में महारानी का दर्जा इंग्लिश को ही हासिल है.