आने वाले दशक में दुनिया में कनैक्टेड आबादी की बहुतायत होगी. यानी, ऐसे लोग जो लगातार अपने स्मार्टफोन जैसे डिवाइसों के जरिए इंटरनैट से जुड़े हैं. स्मार्ट सिटीज और इंटरनैट औफ थिंग्स का जमाना आ चुका है जिस में आप तो इंटरनैट से जुडे़ होंगे ही, साथ ही, आप के कपड़ेलत्ते, उपकरण, रोजमर्रा के काम आने वाली तमाम वस्तुएं, यहां तक कि घर भी इंटरनैट से जुड़ा होगा. आप का कनैक्ट रहना अपरिहार्य हो जाएगा. आप संन्यस्त जीवन जीने जैसा कड़ा फैसला ले कर ही इस से अलग हो सकते हैं वरना अरबों लोग चाहेअनचाहे कनैक्टेड होंगे ही होंगे.
सभी बनें स्मार्ट
उधर, डिजिटल इंडिया का लक्ष्य देश में डिजिटल क्रांति लाने का है ताकि सभी देशवासी स्मार्ट बन सकें, सूचना और संचार से जुड़ कर उस का लाभ उठा सकें. दूसरी तरफ व्यावसायिक लाभ की एक गहरी चाल के तहत फेसबुक द्वारा चलाए जा रहे फ्री बेसिक अभियान का अर्थ भी यही है कि हर देशवासी को डिजिटल तकनीक या कहें इंटरनैट से जुड़ी तकनीकी सुविधाओं के बारे में प्रायोगिक जानकारी सुलभ हो. इस के लिए उस को कुछ मूलभूत स्रोतों तक पहुंच मुफ्त हो.
आरोग्य भारत 2025 का लक्ष्य है कि देश और देशवासियों को स्वस्थ और सबल बनाया जाए. सच तो यह है कि डिजिटल इंडिया और आरोग्य भारत के बीच एक गहरा रिश्ता है. आरोग्य भारत का लक्ष्य पाने में डिजिटल इंडिया बहुत सहायक है पर इस का एक दूसरा पहलू भी है. डिजिटलीकरण का हद से ज्यादा बढ़ना खुद एक अस्वस्थकारी परिघटना है, यह एक रोग साबित हो चुका है.
नोमोफोबिया के शिकार
आप अपने स्मार्टफोन या टेबलेट को बिस्तर के बगल में रख कर सोते हैं, नींद खुलने के बाद जागते ही अपना मेल, फेसबुक पेज, इंस्टाग्राम चैक करते हैं, ताजा खबरें देखते हैं. बहुत देर तक लैपटौप या किसी तरह की बोर्ड या स्क्रीन न दिखे, कोई आप को आप के फोन से अलग कर दे तो आप तनावग्रस्त, निराश तथा बेचैन होने लगते हैं. फोन से दूर हटते ही बेचैनी की शिकायत है तो आप को नोमोफोबिया नामक रोग हो चुका है.
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आप में विद्ड्रौल सिम्प्टम्स दिखने लगते हैं या आप के परिवार वाले इस बात का उलाहना देते हैं कि आप उन से ज्यादा अपने फोन को समय देते हैं, यह सब है तो आप को डिजिटल डिटौक्स की जरूरत है. आप पर डिजिटल प्रदूषण के जहर का गहरा असर हो चुका है. कहने का लब्बोलुआब यह है कि दशकभर पहले जिसे इंटरनैट एडिक्शन डिस्और्डर के तौर पर महज एक असामान्य व्यवहार समझा जाता था, अब एक बीमारी की शक्ल ले चुका है.
2 वर्षों पहले स्वेंस्का और मिलान विश्वविद्यालय के एक अध्ययन ने यह साबित किया था और महज 2 वर्षों बाद ही इस रोग ने इतनी बुरी तरह पैर पसार लिया है कि इस के इलाज को व्यावसायिक दिशा मिल गई है. इस डिजिटल प्रदूषण के जहर से मुक्ति दिलाने के प्रयासों की खोज में लगे एक वैज्ञानिक कहते हैं, ‘‘मैं नहीं चाहता कि लोग पंख वाली कलम या हल की तरफ वापस लौटें, पर इतना चाहता हूं कि लोग तकनीक से स्वस्थ संबंध रखें.’’
आज हमारा दिमाग लगातार व्यस्त रह रहा है. हम स्थिर रहना तो भूल ही गए हैं. कर्मचारी काम पर केंद्रित नहीं हैं. बच्चे पढ़ाई से अलग हट रहे हैं और लोग, लोगों से दूर हो रहे हैं. लोग अब कहने लगे हैं कि वे नहीं चाहते कि उन के बच्चे इस तरह विकसित हों. वे मानने लगे हैं कि उन्हें समयसमय पर अनप्लग होना चाहिए. वे उस अनप्लग्ड जीवन को फिर से पाना चाहते हैं जब वे इस तरह कनैक्टेड नहीं थे, डिजिटल दुनिया और इंटरनैट से दूर थे. पहले के समय में मानवीय समूह के बीच लोगों का संचारसंवाद बेहतर और स्वस्थ था.
डिजिटल जीवनशैली
इलैक्ट्रौनिक मीडिया या डिजिटल माध्यम से जुड़ने के बाद हम मल्टीटास्ंिकग से नहीं बच सकते. हम एक ही वक्त में कई और भिन्न तरह के काम करते हैं. लगातार मल्टीटास्किंग से हमारी सोच उथली पड़ जाती है, एकाग्रता कमजोर होती है, रचनात्मकता घटती है और तनाव कई गुना बढ़ा रहता है.
डिजिटल जहर हमारे शरीर और दिमाग को किस तरह प्रभावित कर रहा है, इस पर गहन शोध चल रहा है. लंदन और न्यूयौर्क में दर्जनों वैज्ञानिकों की टीम, जिस में मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक, न्यूरोसाइंटिस्ट, मानव व्यवहार विज्ञानी, दार्शनिक और समाजशास्त्री शामिल हैं, शोध में जुटी है. तकनीक का यह पक्ष मानवीय व्यवहार को कैसे बदल रहा है और कितना? अभी इस की जानकारी अंश मात्र ही है, पर वह भी बहुत नकारात्मक है.
इस दौरान दुनियाभर में जनसंचार और सच्चे सकारात्मक जनजुड़ाव की ताकत पर बहस चलनी शुरू हो गई है. लोगों को लग रहा है कि डिजिटलीकरण या डिजिटल जीवनशैली मनुष्य को जोड़ने के बजाय एकाकी बना रही है. स्मार्टफोन आपसी संवाद का संघाती है, हत्यारा है. सोशल मीडिया लोगों में नार्सिसिज्म या आत्ममुग्धता बढ़ा रहा है, अनिद्रा दे रहा है और बच्चे असंवेदनशील बनते जा रहे हैं.
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डिजिटल डिटौक्स
एक शोध के तहत तंत्रिका तंत्र वैज्ञानिकों ने मोरक्को के रेगिस्तान में 35 लोगों को बिना उन के स्मार्टफोन इत्यादि उपकरणों के छोड़ दिया. कुछ ही समय बाद उन की जिंदगी बदल गई. विकसित देशों की कंपनियां डिजिटल डिटौक्स या डिजिटल विषाक्तता को दूर करने के लाइलाज का कारोबार कर रही हैं. फेसबुक संस्थापक मार्क जुकरबर्ग की बहन रैंडी जुकरबर्ग भी डिजिटल डिटौक्स के बिजनैस में हैं. इन का कारोबार बढ़ रहा है. जाहिर है, इस के मरीज भी मिल रहे हैं.
इलाज यानी डिजिटल डिटौक्स करने वाली कंपनियां व्यक्ति को सारे डिवाइसों से मुक्त कर देती हैं. फिर बातचीत के जरिए डिजिटल डिटौक्स की मात्रा और प्रकृति की पहचान या रोग का निदान किया जाता है. फिर उस के अनुरूप इलाज की व्यवस्था शुरू होती है. लोगों को एक समूह में सुरम्य स्थान पर रखते हैं जहां खेलकूद, पढ़ने, मसाज और म्यूजिक, स्पा, जिम और बाइक चलाने इत्यादि की व्यवस्था होती है. वहां आप को अपने डिवाइस से अनप्लग्ड रहने और एकांत में रह कर खुद से जुड़ने की व्यवस्था की जाती है. यह एक दिन से ले कर एक हफ्ते तक का कोर्स हो सकता है जो पर्यटन कंपनियां और बड़े होटल इत्यादि करवा रहे हैं.
डिजिटल व्याधि के इलाज, दूसरे उस की प्रक्रिया और उस से जुड़े तमाम तकनीकी व क्रियाकलाप अभी महज प्रायोगिक, फैशनेबल और शैशवावस्था में ही हैं. इस दिशा में चल रहे वर्तमान शोध और कामकाज की दशादिशा देख कर आकलन किया जा सकता है कि आने वाले एक दशक में यह रोग और जटिल होगा. तब इस के इलाज की कई नई वैज्ञानिक विधियां विकसित होंगी और यह एक भरेपूरे व्यवसाय में तबदील होगा. एक दशक बीततेबीतते यह विकसित देशों से भारत जैसे विकासशील देशों तक पहुंच जाएगा.