डाक्टर और मरीज के बीच संबंध बहुत ही निजी और जरूरत भरे होते हैं. कुछ साल से इन संबंधों में दरार आने लगी है. डाक्टर और मरीज के बीच टूटती भरोसे की कड़ी के बीच पैसे की दीवार खड़ी हो गई है. ऐसे में कई बार दोनों के बीच टकराव इस हद तक पहुंच जाता है कि अस्पतालों में तोड़फोड़ की घटनाएं भी होने लगती हैं. ऐसे में यह समझना जरूरी हो जाता है कि डाक्टरी पेशा सेवा है या व्यवसाय. मैडिकल बिजनैस के जानकार इस की वजह महंगे होते इलाज को मानते हैं. ऐसे लोगों का कहना है कि पहले स्वास्थ्य के नाम पर इलाज के लिए कुछ ही दवाएं थीं. मरीज की जांच के नाम पर डाक्टर के पास एक स्टैथोस्कोप ही होता था. उसी से वह मरीज की बीमारी का पता लगाने का काम करता था. डाक्टर अपने अनुभव के आधार पर दवा लिख देता था. उस के बदले अपनी फीस ले लेता था.  

समय के साथ चिकित्सा जगत में नए प्रयोग हुए. नई किस्म की दवाएं, जांच की मशीनें और जिंदगी को लंबा बनाने के दूसरे साधन आने लगे. जिस डाक्टर के पास जांच के लिए बेहतर मशीनें होती हैं वहां मरीज ज्यादा जाते हैं. ऐसे मेंदूसरे डाक्टर के लिए जरूरी होता है कि वह अपने अस्पताल को भी पूरी तरह से सुविधाजनक बनाए. इस के लिए डाक्टर को अस्पताल बनाने में बहुत सारा पैसा निवेश करना होता है. इस पैसे को निकालने के लिए डाक्टर मरीज के ऊपर निर्भर होता है. इस से इलाज का खर्च बढ़ जाता है. मरीज शुरुआत में तो इस महंगे इलाज को वहन कर लेता है, जैसेजैसे वह ठीक होने लगता है, इलाज का महंगा खर्च उस को अखरने लगता है. जिन मामलों में इलाज के दौरान मरीज की मृत्यु हो जाती है वहां मरीज के साथी पैसे देने में आनाकानी करने लगते हैं. इस से टकराव बढ़ जाता है. दोनों के ही अपनेअपने तर्क हैं. मरीज वाले कहते हैं कि डाक्टरी का पेशा सेवा का है, इसे व्यवसाय नहीं बनाना चाहिए. डाक्टर तर्क देता है कि मरीज की बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए हम जो साधन जुटाते हैं उस की वजह से इलाज महंगा हो जाता है.

सरकार नहीं करती मदद

लखनऊ नर्सिंग होम एसोसिएशन की अध्यक्षा डा. रमा श्रीवास्तव कहती हैं, ‘‘शिक्षा और स्वास्थ्य समाज की 2 बड़ी जरूरतें हैं. सरकार ने दोनों का निजीकरण किया. सरकारी स्कूलों के साथसाथ प्राइवेट स्कूल भी बनाए गए. सरकारी अस्पतालों के साथसाथ प्राइवेट नर्सिंग होम भी बनाने शुरू किए गए. सरकार ने स्कूल और नर्सिंग होम के बीच भेदभाव किया. सरकार प्राइवेट स्कूल खोलने वालों को तमाम तरह की सुविधाएं देती है. प्राइवेट नर्सिंग होम खोलने वालों को किसी भी तरह की सुविधा नहीं दी जाती है. 10 बैड के मामूली से अस्पताल को बनाने में 4 करोड़ रुपए से अधिक की रकम लगानी होती है. इस के लिए बैंक से लोन लेना पड़ता है.’’

डा. रमा आगे कहती हैं, ‘‘डाक्टर और मरीज के बीच टकराव की वजह बीमारी में लगने वाला पैसा ही होता है. मरीज को यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि अस्पताल में मिलने वाली सुविधाओं की कीमत उसे देनी पडे़गी. इलाज में जांच की मशीनों ने बेहतर सहयोग दिया है. मशीनों से खतरनाक से खतरनाक औपरेशन भी सुविधाजनक तरीके से होने लगे हैं. नर्सिंग होम में होने वाले बेहतर निवेश से ही मरीजों को बेहतर सुविधाएं मिलती हैं. ऐसे में मरीज को समझना चाहिए कि आज का डाक्टर सेवा के साथ सुविधाएं भी देता है.’’

सेवाभाव से कार्य करें

स्वास्थ्य सेवा में कौर्पोरेट के आने व डाक्टरों में बढ़ती कमर्शियल एप्रोच पर इंडियन मैडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के महासचिव डा. के के अग्रवाल का कहना है, ‘‘मैडिकल प्रोफैशन के व्यावसायिक पेशा हो जाने का अर्थ यह नहीं है कि यह एक नेक पेशा न रहे. व्यावसायिक संस्थान लाभ के लिए व्यवसायीकरण करते हैं. कौर्पोरेट अस्पताल और ट्रस्ट अस्पताल में यह फर्क होता है कि कौर्पोरेट अस्पताल को होने वाली आय का प्रयोग बोर्ड औफ डायरैक्टर्स द्वारा निजी तौर पर भी किया जा सकता है जबकि ट्रस्ट द्वारा अर्जित आय को सिर्फ ट्रस्ट के तय उद्देश्यों के लिए ही प्रयोग किया जा सकता है. जहां तक डाक्टरों की बात है वह चाहे ट्रस्ट के अस्पताल में कार्य करें या कौर्पोरेट अस्पताल में, उन का फर्ज है कि वे पारदर्शिता, नैतिकता और सेवाभाव से कार्य करें.’’

जरूरी है मरीज की काउंसलिंग

कानपुर के राज हौस्पिटल एंड इनफर्टिलिटी सैंटर की डा. ममता अग्निहोत्री कहती हैं, ‘‘मरीज और डाक्टर के बीच संबंध को बेहतर बनाने के लिए जरूरी है कि मरीज की बात को ध्यान से सुना जाए. किसी भी इलाज में होने वाले खर्च, उस में मिलने वाली सफलता के संबंध में डाक्टर को मरीज से पूरी बात करनी चाहिए. कई बार डाक्टर ज्यादा मरीजों को देखने के चक्कर में मरीज को पूरा समय नहीं देते हैं. ऐसे में मरीज को लगता है कि डाक्टर ने उस की पूरी बात नहीं सुनी. यहां से डाक्टर और मरीज के बीच अविश्वास की दीवार खड़ी होने लगती है. अगर ठीक से मरीज को पूरी बात समझाई जाए तो उस की धारणा बदलने लगेगी. डाक्टर को चाहिए कि वह मरीज को इलाज में लगने वाले औसतन खर्च की जानकारी जरूर दे.’’ हमारे यहां अभी भी समय की कोई कीमत नहीं समझी जाती है. ऐसे में डाक्टर जो समय मरीज को देता है उस की कीमत मरीज नहीं समझता. डाक्टरों को ज्यादा से ज्यादा मरीजों को देखने की होड़ से बचना चाहिए. उन को क्वालिटी इलाज देना चाहिए जिस से मरीज को यह लगे कि वह जो फीस चुका रहा है उस के बदले सही इलाज मिल रहा है. परेशानियां वहीं खड़ी होती हैं जहां पर इस तरह की सोच बनने लगती है. ऐसे में मरीज की काउंसलिंग कर के उस को समझाया जा सकता है. मरीज डाक्टर पर यकीन कर के ही अस्पताल में आता है. वह अच्छे से अच्छे डाक्टर की सेवाएं लेना चाहता है.

गोरखपुर के स्टार हौस्पिटल की डा. सुरहिता करीम का मानना है कि डाक्टरी पेशे को ले कर कई तरह की भ्रांतियां समाज में फैल रही हैं. यह सच बात है कि कुछ सालों में डाक्टरी पेशा सेवा भर नहीं रह गया है, उस की जवाबदेही सेवा से अधिक आगे बढ़ चुकी है. ऐसे में मरीज इसे बिजनैस मान लेता है. अस्पताल को चलाना भले ही बिजनैसका काम हो पर मरीज का इलाज करना आज भी सेवा का ही हिस्सा है. वे कहती हैं, ‘‘कुछ दुष्प्रचार भी डाक्टरी पेशे की छवि को खराब करने का काम करता है. कई बार मरीज की बीमारियां ऐसी होती हैं जो बेहतर इलाज से भी ठीक नहीं हो सकती हैं. ऐसे में यह सोचना ठीक नहीं होता कि डाक्टर ने पैसे ले लिए और इलाज नहीं किया. कोई भी डाक्टर अपने मरीज का बुरा नहीं चाहता. वह बेहतर इलाज करने का प्रयास करता है. ऐसी घटनाएं सरकारी अस्पतालों में भी घटती हैं. वहां मरीज हल्ला नहीं मचाता.’’

नए रास्तों से निकले समाधान

इस बात को तो सभी स्वीकार करते हैं कि स्वास्थ्य सेवाएं बदल रही हैं. लोगों को केवल सरकारी अस्पतालों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. अब तो कई ऐसे अस्पताल सरकार खुद बनाती है जहां पर मरीजों को बीमारी में होने वाले खर्च को चुकाना पड़ता है. जब ऐसे अस्पतालों में पैसा देना पड़ता है तो प्राइवेट अस्पतालों में पैसा देना जरूरी हो जाता है. अगर प्राइवेट अस्पतालों से मरीजों को राहत देने के प्रयास किए जाएं तो नर्सिंग होम चलाने वाले डाक्टरों को अस्पताल के लिए सस्ती जमीन, कम ब्याज पर लोन और टैक्स के बोझ को कम करने की जरूरत है. इस के अलावा हैल्थ बीमा को बढ़ावा देने की जरूरत है, जिस से मरीज को महंगे इलाज की मार नहीं सहनी पडे़गी. 

कृष्णा मैडिकल सैंटर की डा. मालविका मिश्रा कहती हैं, ‘‘डाक्टरी पेशा सेवा के साथ किया जाने वाला बिजनैस है. इस में डाक्टर और मरीज के बीच जो रिश्ता बनता है वह दूसरे किसी बिजनैस में नहीं बनता. डाक्टर मरीज से जो फीस लेता है वह ज्यादा नहीं होती. आज विज्ञान ने ऐसी बहुत सारी तकनीकें ईजाद की हैं जिन से मरीज की सेवा बेहतर तरीके से की जा रही है. ऐसी मशीनों और दवाओं का प्रबंध करने के लिए अस्पतालों को सुविधाएं जुटानी पड़ती हैं. अगर डाक्टरी पेशे को नोबल पेशे के रूप में देखना है तो सेवा और व्यवसाय के बीच का रास्ता बनाना होगा. दोनों को एकदूसरे की जरूरतों को समझना पडे़गा. समयअसमय इमरजैंसी में जिस तरह से डाक्टर अपनी सुविधा का ध्यान न रखते हुए मरीज की सेवा करता है यह भाव किसी दूसरे प्रोफैशन में फीस लेने के बाद भी नहीं दिखता है.                            

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