गांव में कहावत है कि खेती करने वाला कभी भूखा नहीं मरता. यह कहावत अत्यंत सीमित महत्त्वाकांक्षा का प्रतीक हो सकती है. इस से यह भी अर्थ लगाया जा सकता है कि आदमी सिर्फ खाने के लिए ही जीता है. पहले यह सब ठीक था क्योंकि उस समय हर आदमी की सीमित महत्त्वाकांक्षा थी और इस से बाहर निकलने के अवसर भी कम थे. आदमी सादगीपसंद था और समाज में छोटे व बड़े का स्पष्ट फर्क उस के रहनसहन से दिखाई पड़ता था. धीरेधीरे स्थिति बदली है और हर आदमी स्वयं को बड़े लोगों की कतार में देखने की महत्त्वाकांक्षा पालने लगा. यह अच्छी प्रवृत्ति है लेकिन इस के दुष्परिणाम भी इस तरह से सामने आए.
कई लोगों ने स्वयं का गलत आकलन शुरू कर दिया. वे स्वयं को बड़ा आदमी महसूस करने लगे और बड़े आदमी जैसी जरूरतों को पूरा करने के लिए उलटेसीधे रास्ते अपनाने लगे. कुछ ऐसे रास्ते से पैसा कमा कर बड़े बन गए लेकिन उन की मानसिकता तो वही रही. उन में कोई बदलाव नहीं आया. फूहड़ता जस की तस रही. इस के अलावा कुछ लोग योग्य थे लेकिन उन के समक्ष अवसर नहीं आए और इस वजह से उन की हताशा बढ़ने लगी. लिहाजा, उन्होंने गांव छोड़ कर बरतन मांजने या छोटामोटा कार्य करने के लिए शहर को चुना और गांव से मुंह मोड़ लिया. शहरों में उस ने संकट ही झेले लेकिन शहर में नौकरी करता रहा और इसी में वह स्वयं को सम्मानित महसूस करता रहा. उसे गांव जाना अच्छा नहीं लगा. लेकिन अब गांव जाने की मजबूरियां सामने आ ही गई हैं.
देश की प्रमुख रेटिंग एजेंसी क्रिसिल रिसर्च ने हाल में एक शोध रिपोर्ट पेश की है जिस में कहा गया है कि अगले 7 सालों में देश में रोजगार के अवसर घटेंगे और 1.2 करोड़ लोगों को शहर छोड़ कर छोटेमोटे रोजगार की तलाश में गांव का रुख करना पड़ेगा. शोध में कहा गया है कि वर्ष 2019 तक गैर कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसर वर्तमान 5.2 करोड़ से घट कर 3.8 करोड़ ही रह जाएंगे. रोजगार का यह अवसर सभी क्षेत्रों में घटेगा और इस की वजह आर्थिक मंदी होगी.
मंदी का नतीजा होगा कि लोग छोटेमोटे रोजगार की तलाश में गांव का रुख करेंगे और कम मूल्य पर खेतीबारी के काम में जुट जाएंगे. यह सरकार की नाकामी का ही परिणाम होगा. यदि शहरों में ढांचागत विकास बढ़ाने के साथसाथ गांव में खेती को बढ़ावा देने और उस में कुशल लोगों को सम्मान के साथ रोजगार के अवसर दिए जाते तो यह स्थिति सामने नहीं आती. कृषि सदाबहार कार्य है और कृषि को यदि देश के उन्नत रोजगार के अवसर के रूप में विकसित किया जाता तो देश की बड़ी आबादी को रोजगार के लिए गांव छोड़ कर भटकना नहीं पड़ता. खेती के काम को सफेद कौलर जौब की तरह नहीं बनाया गया. इसे सम्मान का काम बनाया जाता तो आर्थिक मंदी का संकट पैदा ही न होता. जरूरत गांव की तरफ देखने की है, कृषि को महत्त्व देने और कृषक को उस के उत्पाद के बदले उचित मूल्य के साथ ही उचित सम्मान देने की भी है. जिस दिन गांव बदलेंगे, देश बदल जाएगा और आर्थिक तरक्की का स्थाई आधार हमारे सामने होगा.




 
  
  
  
             
        




 
                
                
                
                
                
                
                
               