यह कौमिक थ्रिलर फिल्म कंप्यूटर हैकर्स के कारनामे दिखाती है. हैकिंग पर बनी यह पहली फिल्म है. पिछले कुछ सालों से यह तकनीक हर घर तक पहुंच गई है. हर घर में, हर व्यक्ति के पास मोबाइल फोन, टैबलेट, कंप्यूटर जैसे गैजेट्स हैं. अधिकांश ट्रांजैक्शंस औनलाइन होने लगे हैं. ऐसे में हैकिंग के मामले भी काफी बढ़ चले हैं. यह फिल्म दिखाती है कि हैकिंग की दुनिया कितनी बड़ी है. दुनिया के बड़ेबड़े हैकर्स किस तरह किसी भी बैंक अकाउंट से कईकई सौ करोड़ रुपए उड़ा ले जाते हैं.

फिल्म की विशेषता इस की कहानी है. कहानी भले ही जलेबी की तरह घुमावदार है लेकिन आज के युवाओं के आलसीपन को दर्शाती है. आज का युवा बैठेबिठाए सबकुछ पा लेना चाहता है. उस के पास एक से बढ़ कर एक गैजेट्स मौजूद हैं.

हर वक्त वह पैनड्राइव जेब में डाले घूमताफिरता है. वह डैस्ट्रक्टिव माइंड का हो चला है. कभी भी, कहीं भी वायरस छोड़ कर किसी के भी सिस्टम को करप्ट करने में उसे मजा आता है.

‘मिकी वायरस’ एक ऐसे ही युवक मिकी (मनीष पाल) की कहानी है, जो हर वक्त खाली घूमता रहता है, खुराफातें करता रहता है. उस की जेब में पैनड्राइव रहती है जिस में वायरस घुसे रहते हैं. वह हैकिंग ऐक्सपर्ट है. उस के कुछ दोस्त भी उसी जैसे हैं. चटनी (पूजा गुप्ता), फ्लौपी (राघव कक्कड़) और पैंचो (विकेश कुमार) के साथसाथ एक गुरु प्रोफैसर (नीतेश पांडे) उस के दोस्त हैं.

एक दिन पुलिस को 2 अनजान विदेशियों की लाशें मिलती हैं. पता लगता है कि ये दोनों हैकर्स थे और भारत आए थे. मामले की तहकीकात एसीपी सिद्धांत (मनीष चौधरी) और इंस्पैक्टर भल्ला (वरुण वडोला) करते हैं. उन्हें किसी भ्रम गैंग की तलाश है. वे मिकी को ढूंढ़ निकालते हैं और उस की मदद से हैकर्स का पता लगाने की कोशिश करते हैं. इसी दौरान मिकी की मुलाकात कामायनी (एली अवराम) से होती है. एक दिन कामायनी गलती से एक बड़ी रकम किसी दूसरे के अकाउंट में ट्रांसफर कर बैठती है. मिकी उस की मदद कर पैसा वापस सही अकाउंट में ले आता है. यहीं से मिकी मुसीबतों में फंस जाता है. कामायनी की हत्या हो जाती है. सबूत मिकी की ओर इशारा करते हैं. लेकिन मिकी मामले की तह तक पहुंच जाता है और उसे पता चल जाता है कि एक बड़ी रकम को हैक करने के पीछे कौनकौन लगे हुए हैं. यहां तक कि एसीपी सिद्धांत भी उस रकम को हासिल करना चाहता है. वह सभी हैकर्स के साथसाथ एसीपी को भी गिरफ्तार कराता है.

फिल्म की इस कहानी में सस्पैंस अंत तक बनाए रखा गया है. कहानी दिलचस्प है. लेकिन निर्देशक ने कहानी को शुरू में बेवजह लंबा खींचा है. फर्स्ट हाफ में पता ही नहीं चल पाता कि कौन क्या कर रहा है. मध्यांतर के बाद हैकर्स को पकड़ने वाले सीक्वैंस ड्रामेटिक बन पड़े हैं. मध्यांतर के बाद फिल्म गति पकड़ती है.

हैकर्स द्वारा बनाए गए और आजमाए गए नएनए गैजेट्स दिखा कर निर्देशक ने दर्शकों को नई जानकारी दी है. फिल्म में अच्छे ग्राफिक्स का इस्तेमाल किया गया है. निर्देशन कुछ हद तक अच्छा है. फिल्म के संवाद भी अच्छे हैं. बीचबीच में हंसी की फुलझडि़यां छूटती रहती हैं.

फिल्म में किरदारों के नाम अटपटे रखे गए हैं जैसे स्यापा, चटनी, फ्लौपी आदि. सारे किरदार इंटरनैटी भाषा का इस्तेमाल करते हैं. आधुनिक जीपीआरएस सिस्टम का इस्तेमाल कर अपराधी को दबोचते हुए दिखाया गया है.

फिल्म का उद्देश्य मात्र साइबर क्राइम दर्शाना है. इस क्राइम से कैसे खुद को सुरक्षित रखा जाए, फिल्म में इस का जिक्र नाममात्र को भी नहीं है. मनीष पाल टीवी कलाकार है. यह उस की पहली फिल्म है. वह लफंडर ज्यादा लगा है, हैकर कम. अभिनय में वह काफी कमजोर रहा है. एली अवराम भी कुछ खास नहीं कर पाई.

फिल्म का गीतसंगीत औसत है. ‘प्यार… चाइना का माल है…’ गीत सुनने में भले ही अजीब लगे पर फिल्म से मैच करता है. छायांकन अच्छा है.

 

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