आज के दौर में भारत में तकरीबन 100 तरह की सब्जियों की खेती मैदानी भागों से ले कर पहाड़ी इलाकों तक में सफलतापूर्वक की जा रही है. इन में 60 ऐसी सब्जियां हैं, जिन की खेती कारोबारी तौर पर तकरीबन 64 लाख हेक्टेयर रकबे में कर के तकरीबन 940 लाख टन सब्जियों का उत्पादन किया जा रहा है. इन में से टमाटर की फसल साल भर ली जा सकती है. किसानों के लिए टमाटर की फसल रोजगार का भी अच्छा जरीया है. टमाटर की फसल पर कीटों के साथसाथ कई तरह की बीमारियों का भी हमला होता है, जिन के लिए किसानों को सजग रह कर उन की देखभाल करनी पड़ती है.

टमाटर की खास बीमारियां

पौध सड़न : सब से पहले इस बीमारी का हमला बीजों के अंकुरण के समय होता है. जैसे ही अंकुर बीजों से बाहर आते हैं, इस रोग के हमले के कारण सड़ जाते हैं. यदि इन से बच कर अंकुर जमीन के ऊपर आ जाते हैं, तो तने के मिट्टी वाले हिस्से पर पानी से भरे फफोले दिखाई पड़ते हैं, जिन में सड़न होने लगती है और अंकुर गिर जाते हैं. शुरुआत में बीमारी के लक्षण कुछ जगहों में दिखाई पड़ते हैं. फिर 2 से 3 दिनों में पूरी नर्सरी में बीमारी फैल जाती है. नर्सरी भूरे व सूखे धब्बों के साथ पीलीहरी दिखाई पड़ती है.

रोकथाम

* बीजों को एग्रोसान जीएन या केप्टान दवा की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए.

* नर्सरी की मिट्टी को भी ऊपर बताई गई दवा के 0.2 फीसदी घोल से उपचारित करना चाहिए.

* अंकुरण के 5 से 7 दिनों बाद कापर आक्सीक्लोराइड या मैंकोजेब या मेटालेक्जिल की 2 ग्राम मात्रा का पानी में घोल बना कर जड़ों में डालें.

अगेती झुलसा : यह रोग अल्टरनेरिया सोलेनाई नामक फफूंद से फैलता है. इस के हमले के बाद पुरानी पत्तियों पर चकत्ते पड़ जाते हैं. तने पर गहरे रंग की गोलगोल छल्लेनुमा धारियां दिखाई देती हैं और फूल व फल सड़ जाते हैं.

रोकथाम

* रोग के असर को कम करने  लिए फसलचक्र में सोलेनसी कुल की फसलें न उगाएं.

* हमेशा स्वस्थ फलों से पाए गए बीजों का इस्तेमाल करें.

* गरमी की जुताई करें, जिस से बीमारी फैलाने वाली फफूंद नष्ट हो जाए.

* जैसे ही पत्तियों पर रोग के लक्षण दिखाई दें, फौरन क्लोरोथालोनिक के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव 8 दिनों के अंतर पर करें.

* बचाव के लिए ब्लाइटाक्स 50 नामक दवा के 0.25 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए. प्रतिरोधी किस्म कल्याणपुर सलेक्शन 1 का इस्तेमाल करना चाहिए.

पछेती झुलसा : यह रोग फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टेंस नामक फफूंद से फैलता है. पत्तियों पर कालापन लिए हरे रंग के पानी वाले धब्बे पड़ जाते हैं. ये धब्बे नम व ठंडे मौसम में तेजी से बढ़ते हैं और कभीकभी इन की निचली सतह सफेद हो जाती है. तने पर भी इसी प्रकार के धब्बे पड़ जाते हैं. इस रोग से फल बदरंग हो जाते हैं.

रोकथाम

* स्वस्थ फलों से प्राप्त बीजों का इस्तेमाल करें.

* सभी बीमार फलों व पौधों के हिस्सों को इकट्ठा कर के खेत से बाहर ले जा कर जला दें.

* जैसे ही बदली वाले मौसम के आसार हों, तो फौरन मैंकोजेब दवा के 0.25 फीसदी घोल का छिड़काव करें. इस दवा के घोल का छिड़काव 5 से 7 दिनों बाद दोहराएं.

* यदि ज्यादा प्रकोप हो तो मेटालेक्सिल मैंकोजेब के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

पत्ती सिकुड़न व मोजैक : टमाटर का टोमैटो स्पोटेड उक्टा वायरस से फैलता है. यह विषाणु से होने वाला खास रोग है. इस रोग से पौधे बौने रह जाते हैं व पत्तियां ऐंठ कर आकार में छोटी रह जाती हैं. पौधों में बहुत ज्यादा शाखाएं निकल आती हैं और उन में फल बिलकुल ही नहीं लगते हैं. तंबाकू में लगने वाला गिडार एक पौधे से दूसरे पौधे में रोग फैलाता है.

रोकथाम

* इस की रोकथाम के लिए बोआई से पहले कार्बोफ्यूरान 3 जी 8 से 10 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से जमीन में मिलाना चाहिए.

* रोपाई के 15 से 20 दिनों बाद डाईमिथोएट 30 ईसी या इमिडाक्लोप्रिड 36 एसएल का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. यह छिड़काव 15 से 20 दिनों के अंतराल दोहराना चाहिए.

टमाटर गलना या मुरझाना : यह रोग स्युडोमोनास सोलेनेसीएरम नामक जीवाणु द्वारा फैलता है. पहली अवस्था में पौधों का मुरझाना शुरू होता है और बाद में पत्तियां भी मुड़ जाती हैं. पहले नीचे की पत्तियां पीली पड़ कर मर जाती हैं, बाद में ऊपर की पत्तियां मरती हैं. रोगी पौधे के तने को काटने पर वह गहरे भूरे रंग का दिखाई पड़ता है.

रोकथाम

* रोगी पौधे को उखाड़ कर जला देना चाहिए. यह समस्या दोबारा न पनपे इस के लिए फसलचक्र अपनाना चाहिए.

फल सड़न : इस रोग का असर खासतौर से खरीफ के मौसम में ज्यादा होता है. कई रोगकारक जैसे पिथियम फाइटोफ्थोरा, कोलेटोट्राइकाम वगैरह कई तरह से फलों को सड़ा देते हैं. हर साल इन रोगकारकों द्वारा तकरीबन 40 फीसदी फल सड़ा दिए जाते हैं.

राइजोक्टोनिया फल सड़न खरीफ के मौसम वाली टमाटर की सब से खतरनाक बीमारी है. इस बीमारी का लक्षण फल की निचली सतह पर गोलाकार सड़ता हुआ आगे बढ़ता है. बाद में इस सड़े हुए भाग पर दरारें पड़ जाती हैं. माइरोथिसियस फल सड़न की तरह गोलाकार छल्ले के रूप में होता है. सफेद व काले रंग के तमाम स्पोरोडोकिया इन छल्लों पर दिखाई पड़ते हैं, जो गीले होते हैं. फोमोप्सिस फल सड़न बीमारी ज्यादातर लाल फल पर सड़न पैदा करती है. स्केलेराकसियम फल सड़न में सफेद फफूंद और स्केलोरोसिया दिखाई देते हैं.

रोकथाम

* खयाल रखें कि फल मिट्टी को न छूने पाएं, इस के लिए पौधों के साथ लकड़ी के डंडे बांध दें.

* खेत में सिंचाई का पानी अधिक समय तक न रुकने दें.

* फसल की बोआई से पहले खेत में हरी खाद की फसल को बो कर खेत में उलट दें. खेत की तैयारी के समय 5 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* सभी सड़े फलों को इकट्ठा कर के नष्ट करें ताकि रोग न फैले.

जीवाण्ु धब्बा रोग : इस रोग का प्रकोप पूरे देश में होता है. इस रोग के छोटे धब्बे रोपाई से पहले पौधों की पत्तियों पर दिखाई देते हैं. बाद में धब्बे इकट्ठे हो कर पौधों की पत्तियों को जला देते हैं. इस रोग का असर खरीफ मौसम में ज्यादा होता है, जिस से औसतन 35 से 40 फीसदी पौधे प्रभावित हो जाते हैं व 40 फीसदी तक उत्पादन

कम हो सकता है. इस रोग का असर कच्चे फलों पर सब से ज्यादा होता है. नतीजतन हरे फलों के ऊपर धब्बे बन जाते हैं.

रोकथाम

* बोआई से पहले बीजों को स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के 100 पीपीएम घोल में डुबोएं.

* खेत की गरमी में जुताई करें.

* स्वस्थ्य बीजों का इस्तेमाल करें.

* शाम के समय स्ट्रेप्टोसाइक्लिन का छिड़काव 150 से 200 पीपीएम के घोल द्वारा करें व इस के बाद कापर आक्सीक्लोराइड के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

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