वह भी बस्तर जैसे पिछड़े इलाके में, वह भी आदिवासी किसानों द्वारा. सुनने में यह बात शायद हजम न हो, लेकिन यह हकीकत है. बस्तर में पिछले 25 सालों से जैविक व औषधीय कृषि कामों में लगी संस्था ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह’ ने इसे अमलीजामा पहनाया है. बस्तर के बेहद पिछड़े आदिवासी वन गांव में पैदा हुए प्रगतिशील किसान डा. राजाराम त्रिपाठी ने बैंक अधिकारी की उच्च पद वाली नौकरी से इस्तीफा दे कर पिछले 20 सालों में काली मिर्च की इस नई प्रजाति की खोज में कामयाबी हासिल की.

नई प्रजाति एमडीबी-16 के विकास के बाद यह बात साबित हो गई है कि केरल ही नहीं, बल्कि भारत के शेष भागों में भी उचित देखभाल से काली मिर्च की इस विशेष प्रजाति की सफल और उच्च लाभदायक खेती की जा सकती है. गांव जड़कोंगा, कांटा गांव, विकासखंड माकड़ी, जिला कोंडागांव, बस्तर के किसान संतुराम मरकाम, राजकुमारी मरकाम, रमेश साहू व उन के पूरे समूह सहित कई आदिवासी किसान सदस्य ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह’ से सालों पहले से जुड़े हैं.

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उन्हें जोड़ने में तत्कालीन जनपद अध्यक्ष, समाजसेवी जानोबाई मरकाम की प्रमुख भूमिका रही. जैविक खेती और हर्बल खेती की ओर अग्रसर इन किसानों ने काली मिर्च के पौधे भी अपने घर की बाड़ी में लगाए थे. संतुराम मरकाम बताते हैं कि उन्होंने तकरीबन 27 पौधे काली मिर्च के लगाए, किंतु गरमियों में साल (सरई) के सूखे पत्तों के नीचे आग लग जाने के कारण कई पौधे मर गए. फिर भी वर्तमान में 16 पौधे बचे हैं, जिन में पिछले 3 सालों से काली मिर्च के फल आ रहे हैं. इन 16 काली मिर्च के पौधों से उन्हें कुल 16 किलोग्राम काली मिर्च प्राप्त हुई.

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