आम भारत के सब से खास फलों में से एकहै. यह एक ऐसा अनमोल फल है, जो सभी को भाताहै. आम में विटामिन ए व सी काफी मात्रा में होता है. इस फल से अमचूर, चटनी, अचार, स्क्वैश, जैम वगैरह बनाए जा सकते हैं. दूसरे देशों को आम भेजने के लिए इस की उत्पादकता और गुणवत्ता बढ़ाना बहुत जरूरी है.

आम की कम उत्पादकता का खास कारण बाग लगाने के 8-10 सालों तक कम उपज हासिल होनाहै, क्योंकि शुरुआती साल में बौर कम आतेहैं और फसल कम होती है. इस तरह शुरू के कई सालों तक फायदेमंद उपज नहीं मिलतीहै और बाग में पेड़ों के बीच की जमीन पर दूसरी फसल उगा कर घाटा पूरा करना पड़ता है. अच्छी उपज हासिल करने के लिए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल किए जाने की जरूरत है.

जलवायु : आम की खेती उष्ण व उपोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु में समुद्रतल से 600 मीटर की ऊंचाई तक सफलतापूर्वक की जातीहै. तीनों कृषि जलवायु क्षेत्रों में इस की खेती सफलतापूर्वक की जा सकतीहै. इस में फूल आने के समय बारिश होने पर फल कम बनते हैं और कीड़ों व बीमारियों का प्रकोप

बढ़ जाताहै. अधिक तेज हवा व आंधी द्वारा आम की फसल को नुकसान पहुंचता है.

जमीन : बलुई, पथरीली और जलभराव वाली जमीन में इस का उत्पादन लाभकारी नहींहै. आम की सफल खेती के लिए सही जल निकास वाली गहरी दोमट जमीन ही मुनासिब होती है. आम की पैदावार के लिए मिट्टी का पीएच 5.5-7.5 सही माना जाता है.

उम्दा किस्में

उत्तर भारत : दशहरी, लंगड़ा, चौसा, रतौल, बांबे ग्रीन, लखनऊ, सफेदा.

दक्षिण भारत: मलगोवा, तोतापुरी, बैगनपल्ली, नीलम, अलफांसो, सुवर्णरेखा, पाइरी.

पूर्वी भारत : दशहरी, फजली, गुलाबखास, किशनभाग, लंगड़ा, जरदालू, हिमसागर, बांबे ग्रीन.

पश्चिम भारत: अलफांसो, केसर, पाइरी, वनराज, जमादार.

उन्नत संकर : आम्रपाली, मल्लिका, अंबिका, रत्ना, अरुनिका.

मूलवृंत: सामान्य रूप से 1 साल पुराने देशी आम के बीजू पौधों का मूलवृंत के लिए इस्तेमाल किया जाता है. बहुभ्रूणीय मूलवृंत पर ग्राफ्ट किए गए पौधे समान आकार व गुण वाले होते हैं. बहुभ्रणीय मूलवृंत जैसे टर्पेटाइन, सावरे, विलाई कोलंबन, 13-1 व कुरुक्कन, उसरीली मिट्टियों के लिए अच्छे माने गए हैं. ये दक्षिण भारत में लोकप्रिय हो रहेहैं. उत्तर भारत में बहुभ्रूणीय मूलवृंतों के अभाव के कारण देशी आम की गुठलियों से बीजू पौध तैयार कर के मूलवृंत के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.

पौधे तैयार करना : आम के बीजू पौध तैयार करने के लिए गुठलियों को जूनजुलाई में बो दिया जाताहै. नर्सरी में 8-10 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सड़ी गोबर की खाद मिलानी चाहिए. आम के पौधे तैयार करने की विधियों में भेंट कलम, वीनियर ग्राफ्टिंग, सैफ्टवुड/क्लेफ्ट ग्राफ्टिंग और स्टोन या इपीकोटिल ग्राफ्टिंग खास हैं. प्रचलित भेंट कलम विधि में कई कमियांहैं, लिहाजा इसे प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए. वीनियर व सौफ्टवुड/क्लेफ्ट ग्राफ्टिंग द्वारा अच्छे किस्म के पौधे कम समय में तैयार होते हैं. दक्षिण भारत में 25×10 सेंटीमीटर की पौलीथिन की थैलियों में मूलवृंत तैयार कर के वीनियर/क्लेफ्ट ग्राफ्टिंग कर केव्यावसायिक स्तर पर आम के पौधे तैयार किए जा रहेहैं. इस तकनीक को प्रोत्साहित करने की जरूरत है.

आम के पौधे कलम बंधन की तमाम विधियों द्वारा तैयार किए जा सकते हैं. इस में मूलवृंत के लिए 6 महीने से 1 साल के पौधे ठीक होतेहैं. आम की गुठलियों से मातृ मूलवृंत या बीजू पौध तैयार किया जाता है. बहुभ्रूणीय गुठलियों से समान गुणों वाले पौधे तैयार किए जा सकतेहैं, मानक मूलवृंत न होने पर मूलवृंत के लिए स्वस्थ व वजनदार गुठलियों का चयन करना चाहिए. अधिकतम अंकुरण के लिए गुठली को फलों से निकालने के तुरंत बाद 1 मीटर चौड़ी व 20 सेंटीमीटर ऊंची क्यारियों में बोना सही पाया गया है. अंकुरण के 20-25 दिनों बाद बीजू पौधों को पहले से तैयार खेत में लगा देतेहैं. क्यारियों में पहले से बोई गई गुठलियां जब अंकुरित हो जाएं तब उन्हें पहले सेभरे हुए पौलीबैग में गुठली सहित उखाड़ कर लगातेहैं. काले रंग के पालीबैग में 3 हिस्सा मिट्टी व 2 हिस्सा सड़ी गोबर की खाद के मिश्रण में पौधों कोस्थानांतरण करतेहैं.

इन कोमल बीजू पौधों की कीड़ों व बीमारियों से मानसून के समय हिफाजत करना जरूरीहै. करीब 1 साल में बीजू पौधे कलम के लिए तैयार हो जाते हैं.

आम के उम्दा पौधे तैयार करने के लिए निम्न विधियां प्रचलितहैं:

विनियर कलम बंधन

* 1 साल आयु और 0.50 से 0.75 सेंटीमीटर व्यास वाले स्वस्थ बीजू पौधे मूलवृंत के रूप में इस्तेमाल किए जातेहैं.

* सांकुर के लिए 3-4 महीने पुरानी मनचाही किस्म की स्वस्थ शाखाएं इस्तेमाल की जाती हैं.

* सांकुर शाख को 7-10 दिनों पहले ही मातृ पेड़ में पर्ण रहित करें फिर अग्रकली विकसित होने पर काट लें.

* सांकुर शाख में एक तरफ लंबा व दूसरी तरफ छोटा तिरछा चीरा लगाएं. मूलवृंत में 15-20 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर बगल में 3-4 सेंटीमीटर तिरछा चीरा लगाएं.

* सांकुर शाख को मूंलवृंत में लगा कर 200 गेज पालीथीन स्ट्रिप से अच्छी तरह बांध दें.

* उत्तर भारत में जून से सितंबर तक खुली क्यारियों व पालीहाउस की सुविधा होने पर किसी भी समय इस विधि द्वारा आम के पौधे तैयार किए जा सकतेहैं. इस विधि द्वारा अगले साल की रोपाई के लिए पौधे तैयार हो जाते हैं.

कोमल शाख कलम बंधन

* 6 महीने से 1 साल के मूलवृंत लें.

* विनियर की तरह ही सांकुर शाख तैयार करें. सांकुर शाख व मूलवृंत की मोटाई एक जैसी होनी चाहिए.

* मूलवृंत के शीर्ष कटे भाग से 4-6 सेंटीमीटर का लंबवत चीरा बीचोंबीच लगाएं.

* पहले से तैयार सांकुर शाख के आधार पर 4-6 सेंटीमीटर तिरछी कटाई 2 तरफ से करें.

* सांकुर शाख का प्रत्यारोपण मूलवृंत पर कर के उस जगह को 200 गेज मोटी पालीथीन स्ट्रिप से अच्छी तरह बांध दें.

* सांकुर शाख व मूलवृंत को प्रत्यारोपण से पहले 0.05 फीसदी कार्बेंडाजिम से उपचातिर कर लें.

* कोमल शाख कलम बंधन एक आसान विधिहै. इस के द्वारा बेहतर आम के बाग को तैयार किया जा सकताहै. इस विधि को उत्तर भारत में प्रोत्साहित करने की बेहद जरूरतहै.

प्रांकुर प्रवर्धन

* 10-15 दिनों के हलकी हरी पत्तियों वाले पौधों का इस्तेमाल मूलवृंत के लिए करें.

* पौधे को गुठली के साथ 0.05 फीसदी कार्बेंडाजिम में 5 मिनट तक उपचारित करें. फिर इस की शीर्ष शाखा को 6-8 सेंटीमीटर की ऊंचाई से काट कर शीर्ष भाग से बीचोंबीच 3-4 सेंटीमीटर का लंबवत चीरा लगाएं.

* 2-3 महीने पुरानी सांकुर शाख जिन्हें विनियर विधि की तरह तैयार किया गया हो को प्रत्यारोपण के लिए लें.

* सांकुर शाख के आधार पर दोनों तरफ से तिरछा काट कर मूलवृंत में बनाए खांचे में इन्हें एक स्थान पर बैठा कर प्रत्यारोपित करें.

* सांकुर शाख केऊपर प्रत्यारोपण के बाद 10-15 दिनों के लिए ऊपर से पतली पालीथीन नलिका लगाएं.

* शीर्ष कलिका निकलने के बाद लगाई गई नलिका को हटा दें. बारिश के मौसम में इस विधि द्वारा अच्छी सफलता की उम्मीद होती है.

पेड़ लगाना : आम के पेड़ों को लगाने के लिए बारिश का मौसम सब से अच्छा माना गयाहै. जिन इलाकों में बारिश अधिक होती है, वहां बारिश के अंत में आम का बाग लगाना चाहिए. मई महीने में करीब 50 सेंटीमीटर व्यास के 1 मीटर गहरे गड्ढे खोद कर उन में करीब 30-40 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद मिट्टी में मिला कर और 100 ग्राम क्लोरपाइरीफास पाउडर प्रति गड्ढे की दर से भर देना चाहिए. गड्ढा खोदने व भरने का काम बारिश का मौसम आने से पहले जरूर कर लेना चाहिए. बारिश के मौसम में पौधों की रोपाई प्लांटिंग बोर्ड की सहायता से करनी चाहिए. पौधों की दूरी किस्म के मुताबिक 10-12 मीटर होनी चाहिए. आम्रपाली किस्म के लिए यह दूरी 2.5 मीटर होनी चाहिए. बागों में ऐसी किस्में (जैसे दशहरी के बाग में बांबे ग्रीन) जरूर लगानी चाहिए, जिन से परागण में मदद मिल सके.

अंत:फसलें : आम के बाग में पहले 10 सालों तक अंत:फसलों को उगा कर काफी लाभ हासिल किया जा सकता है. इस से जमीन का पूरा इस्तेमाल भी होता है. आम के बाग में लोबियाआलू, मिर्चटमाटर, मूंगचना, उड़दचना आदि फसलचक्र उपयोगी साबित हुए हैं. लोबियाआलू फसल चक्र से सब सेज्यादा आय हासिल की जा सकती है. इस के अलावा सब्जियां और तिलहनी फसलें जैसे मूंगफली, तिल, सरसों आदि भी उगाई जा सकती हैं. गेंदा व ग्लैडियोलस फूलों की अंत:फसलें भी फायदेमंद हैं, जिन्हें बागबान अपना रहे हैं. आम के थालों में फसल नहीं बोनी चाहिए. ज्वार, बाजरा, गन्ना व धान जैसी फसलों की पैदावार अंत:फसल के रूप में नहीं की जानी चाहिए.

खाद : आम के बागों को 10 सालों तक हर साल उम्र के गुणांक में नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की क्रमश: 100 ग्राम, 50 ग्राम व 100 मात्रा प्रति पेड़ की दर से जुलाई में पेड़ के चारों तरफ बनाई गई नाली में देनी चाहिए. 10 साल या इस से पुराने बागों में 1000 ग्राम नाइट्रोजन, 500 ग्राम फास्फोरस व 1000 ग्राम पोटाश की मात्रा तने से करीब 1.5 मीटर दूरी पर बनाई गई 25 सेंटीमीटर चौड़ी नाली में डालनी चाहिए. इस के अलावा मिट्टी की भौतिक व रासायनिक दशा में सुधार के लिए 25-30 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद प्रति पेड़ देनी चाहिए.

सिंचाई : बाग लगाने के पहले साल में 2-3 दिनों के अंतर पर, 2-5 साल होने पर 4-5 दिनों के अंतर पर और जब पौधे फलने लगें तो फल लगने के बाद 2-3 बार पानी देना चाहिए. बाग में पहली सिंचाई फल लगने के बाद, दूसरी सिंचाई फलों के कांच की गोली के बराबर होने पर और तीसरी सिंचाई मई के दूसरे हफ्ते में करने से फलों के आकार व गुणवत्ता में इजाफा होताहै. सिंचाई हमेशा थालों में ही करनी चाहिए.

निराईगुड़ाई : बागों को साफसुथरा रखने के लिए समयसमय पर निराईगुड़ाई और साल में 2 बार जुताई कर देनी चाहिए. इस से खरपवतार और भूमिगत कीट नष्ट हो जातेहैं.

कुलतार (पैक्लोव्यूट्राजाल)

का इस्तेमाल

आम के पेड़ में हर साल फल आने व पेड़ की बढ़वार को सही रखने के लिए कुलतार का इस्तेमाल किया जाता है. इस के लिए हर पेड़ की सालाना उम्र पर 1 मिलीलीटर कुलतार को 5 लीटर पानी में मिला कर पेड़ के मुख्य तने के चारों ओर मिट्टी में मिला कर हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. उत्तरी भारत में कुलतार के इस्तेमाल का सही समय 15 सितंबर से 15 नवंबर माना जाताहै. इस के इस्तेमाल से जुलाईअगस्त में आई नई शाखाओं पर फरवरीमार्च में बाकायदा फूल व फल आने शुरू हो जातेहैं.

पुराने बागों को ठीक करना : ऐसा देखा गया है कि 45-50 सालों बाद आम के पेड़ों का फैलाव काफी बढ़ जाताहै और उन की शाखाएं बढ़ कर दूसरे पेड़ों कोछूने लगती हैं. इस से सूरज की रोशनी पेड़ों तक सही मात्रा में नहीं पहुंच पातीहै. इस कारण प्रकाश संश्लेषण नहीं हो पाता है, नतीजतन पेड़ों में फूल व फल सही तरीके से नहीं आ पाते. ऐसे बाग कीड़ों व बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं. ऐसे बागों को कटाईछंटाई तकनीक से उत्पादक बनाया जा सकता है.

ऐसे पेड़ों की सभी शाखाओं को जमीन से 4-5 मीटरऊंचाई पर दिसंबर में काट देना चाहिए.  शाखाओं को पहले नीचे की तरफ से काटतेहैं और बाद में ऊपर से काटते हैं. काटने के बाद कापर आक्सीक्लोराइड का लेप बना कर काटी गई जगहों पर लगाना कारगर होताहै. कापर आक्सीक्लोराइड की जगह पर गोबर और मिट्टी का लेप भी लगाया जा सकताहै.

मार्चअप्रैल में इन कटी हुई शाखाओं पर नए कल्ले आने लगतेहैं और हर कटी शाखा पर भरपूर मात्रा में टहनियां व पत्तियां निकलतीहैं. इन में से 8-10 अच्छी टहनियों को बढ़ने देना चाहिए. बाकी फालतू टहनियों को जूनजुलाई तक हटा देना चाहिए. इन कटे पेड़ों में 2.5 किलोग्राम यूरिया, 3.0 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट और 1.5 किलोग्राम म्यूरेट आफ पोटाश प्रति पेड़ की दर से डालना चाहिए. इन उर्वरकों में से यूरिया की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा फरवरी में और यूरिया की बची आधी मात्रा जून में इस्तेमाल करतेहैं. इस के अलावा 50-100 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद प्रति पेड़ देना फायदेमंद होता है.

इन कटे पेड़ों में अप्रैल से जून तक 15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. साथ ही कीड़ों व रोगों के लिए चौकन्ना रहना चाहिए.

कीड़ों की रोकथाम

भुनगा: इस कीट के बच्चे व वयस्क दोनों ही मुलायम टहनियों, पत्तियों व फूलों का रस चूसते हैं. इस की वजह से फूल सूख कर गिर जातेहैं. यह कीट एक प्रकार का मीठा पदार्थ निकालता है, जो पेड़ों की पत्तियों, टहनियों आदि पर लग जाताहै. इस मीठे पदार्थ पर काली फफूंदी पनपती है, जो पत्तियों पर काली परत के रूप में फैल कर पेड़ों के प्रकाश संश्लेषण पर खराब असर डालती है.

इलाज : बाग से खरपतवार हटा कर उसे साफसुथरा रखें. घने बाग की कटाईछंटाई दिसंबर में करें. बौर फूटने के बाद बागों की बराबर देखभाल करें. पुष्पगुच्छ की लंबाई 8-10 सेंटीमीटर होने पर भुनगे का प्रकोप होताहै. इस की रोकथाम के लिए 0.005 फीसदी इमिडा क्लोप्रिड का पहली बार छिड़काव करें. 0.005 फीसदी थायामेथोक्लाज या 0.05 फीसदी प्रोफेनोफास का दूसरा छिड़ाकाव फल लगने के बाद करें.

गुजिया: इस के बच्चे और वयस्क पत्तियों व फूलों का रस चूसतेहैं. जब इन की तादाद ज्यादा हो जातीहै, तो इन के द्वारा रस चूसे जाने के कारण पेड़ों की पत्तियां व बौर सूख जातेहैं और फल नहीं लगते हैं. इस

कीट का हमला दिसंबर से मई महीने तक देखा जाता है.

इलाज : खरपतवारों और अन्य घासों को नवंबर में जुताई द्वारा बाग से निकालने से सुप्तावस्था में रहने वाले अंडे धूप, गरमी व चीटियों द्वारा नष्ट हो जातेहैं. दिसंबर के तीसरे हफ्ते में पेड़ के तने के आसपास 250 ग्राम क्लोरपाइरीफास चूर्ण 1.5 फीसदी प्रति पेड़ की दर से मिट्टी में मिला देने से अंडों से निकलने वाले निम्फ मर जातेहैं. पालीथीन की 30 सेंटीमीटर चौड़ी पट्टी पेड़ के तने के चारों ओर जमीन की सतह से 30 सेंटीमीटर ऊंचाई पर दिसंबर के दूसरेतीसरे हफ्ते में गुजिया के निकलने से पहले लपेटने से निम्फों का पेड़ों पर ऊपर चढ़ना रुक जाताहै. पट्टी के दोनों सिरों को सुतली से बांधना चाहिए. इस के बाद थोड़ी ग्रीस पट्टी के निचले घेरे पर लगाने से गुजिया को पट्टी पर चढ़ने से रोका जा सकताहै. यह पट्टी बाग में मौजूद सभी आम के पेड़ों व अन्य पेड़ों पर भी बांधनी चाहिए. अगर किसी वजह से यह विधि नहीं अपनाई गई और गुजिया पेड़ पर चढ़ गई, तो ऐसी हालत में 0.05 फीसदी कार्बोसल्फान 0.2 मिलीलीटर प्रति लीटर या 0.06 फीसदी डायमेथोएट 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर का छिड़काव करें.

पुष्प गुच्छ मिज : आम के पेड़ों पर मिज के प्रकोप से 3 चरणों में हानि होती है. इस का पहला प्रकोप कली के खिलने की अवस्था में होता है. नए विकसित बौर में अंडे दिए जाने व लार्वा द्वारा बौर के मुलायम डंठल में घुसने से बौर पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं. इस का दूसरा प्रकोप फलों के बनने की अवस्था में होता है. फलों में अंडे देने व लार्वा के घुसने की वजह से फल पीले हो कर गिर जातेहैं. तीसरा प्रकोप बौर को घेरती हुई पत्तियों पर होता है.

इलाज : अक्तूबर व नवंबर में बाग में की गई जुताई से मिज की सूंडि़यों के साथ सोए पड़े प्यूपे भी नष्ट हो जातेहैं. जिन बागों में इस कीट का हमला होता रहा है, वहां बौर फूटने पर 0.06 फीसदी डायमेथोएट का छिड़काव करना चाहिए. अप्रैलमई में 250 ग्राम क्लोरपाइरीफास चूर्ण प्रति पेड़ के हिसाब से छिड़काव करने पर पेड़ के नीचे सूंडि़यां नष्ट हो जाती हैं. फरवरी में भुनगे के लिए किए जाने वाले कीटनाशी के छिड़काव से इस कीट की भी अपनेआम रोकथाम हो जातीहै.

डासी मक्खी : वयस्क मक्खियां अप्रैल में जमीन से निकल कर पके फलों पर अंडे देती हैं. 1 मक्खी 150 से 200 तक अंडे देतीहै. 2-3 दिनों के बाद सूंडि़यां अंडों से निकल कर गूदे को खाना शुरू कर देतीहैं.

इलाज : इस कीट के असर को कम करने के लिए सभी गिरे हुए व मक्खी के प्रकोप से ग्रसित फलों को इकट्ठा कर के नष्ट कर देना चाहिए. पेड़ों के आसपास सर्दी के मौसम में जुताई करने से जमीन के अंदर के प्यूपों को नष्ट किया जा सकताहै. काठ से बने यौनगंध ट्रैप को पेड़ पर लगाना इस की रोकथाम में बहुत कारगर है. इस ट्रैप के लिए प्लाईवुड के 5×5×1 सेंटीमीटर आकार के गुटके को 48 घंटे तक 6:4:1 के अनुपात में अल्कोहल, मिथाइल यूजिनाल, मैलाथियान के घोल में भिगो कर लगाना चाहिए. यौनगंध ट्रैप को 2 महीने के अंतर पर बदलना चाहिए. 10 ट्रैप प्रति हेक्टेयर लटकाने चाहिए.

रोगों की रोकथाम

पाउडरी मिल्ड्यू (खर्रा, दहिया) : इस रोग के लक्षण बौरों, पत्तियों व नए फलों पर देखे जा सकतेहैं. इस रोग का खास लक्षण सफेद कवक या चूर्ण के रूप में जाहिर होताहै. नई पत्तियों पर यह रोग आसानी से दिखताहै, जब पत्तियों का रंग भूरे से हलके हरे रंग में बदलता है. नई पत्तियों पर ऊपरी और निचली सतह पर छोटे सलेटी रंग के धब्बे दिखाई देतेहैं, जो निचली सतह पर ज्यादा होतेहैं. बौरों पर यह रोग सफेद चूर्ण की तरह दिखाई पड़ताहै और बौरों में लगे फूलों के झड़ने की वजह बनताहै. इस रोग की वजह से फूल नहीं खिलते हैं और समय से पहले ही झड़ जातेहैं. नए फलों पर पूरी तरह सफेद चूर्ण फैल जाताहै और मटर के दाने के बराबर हो जाने के बाद फल पेड़ से झड़ जातेहैं.

इलाज : पहला छिड़काव 0.2 फीसदी घुलनशील गंधक का घोल बना कर उस समय करना चाहिए, जब बौर 3-4 इंच का होता है. दूसरा छिड़काव 0.1 फीसदी डिनोकोप का होना चाहिए, जो पहले छिड़काव के 15-20 दिनों के बाद हो. दूसरे छिड़काव के 15-20 दिनों के बाद तीसरा छिड़काव 0.1 फीसदी ट्राईडीमार्फ का होना चाहिए.

एंथ्रेकनोज : यह रोग पत्तियों, टहनियों और फलों पर देखा जा सकताहै. पत्तियों की सतह पर पहले गोल या अनियमित भूरे या गहरे भूरे रंग के धब्बे बनतेहैं. प्रभावित टहनियों पर पहले काले धब्बे बनतेहैं और फिर पूरी टहनी सलेटी रंग की हो जातीहै. पत्तियां नीचे की ओर झुक कर सूखने लगती हैं और बाद में गिर जातीहैं. बौर पर सब से पहले पाए जाने वाले लक्षण हैं, गहरे भूरे रंग के धब्बे, जो कि फूलों पर जाहिर होतेहैं. बौर व खिले फूलों पर छोटे काले धब्बे उभरते हैं, जो धीरेधीरे फैलतेहैं और आपस में जुड़ कर फूलों को सुखा देतेहैं. ज्यादा नमी होने पर यह रोग तेजी से फैलताहै.

इलाज : सभी रोगग्रसित टहनियों की छंटाई कर देनी चाहिए और बाग में गिरी हुई पत्तियों,टहनियों और फलों को इकट्ठा कर के जला देना चाहिए. मंजरी संक्रमण को रोकने केलिए 0.1 फीसदी कार्बेंडाजिम का 15 दिनों के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करना चाहिए. संक्रमण को रोकने के लिए 0.3 फीसदी कापर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव भी लाभकारी है. 0.1 फीसदी थायोफनेट मिथाइल या 0.1 फीसदी कार्बेंडाजिम का बाग में फल तोड़ाई से पहले छिड़काव करने से गुप्त संक्रमण को कम किया जा सकताहै.

उल्टा सूखा रोग : टहनियों का ऊपर से नीचे की ओर सूखना इस रोग का मुख्य लक्षण है. विशेष तौर पर पुराने पेड़ों में बाद के पत्ते सूख जातेहैं, जो आग से झुलसे हुए से मालूम पड़तेहैं. शुरू में नई हरी टहनियों पर गहरे रंग के धब्बे पड़ जातेहैं. जब ये धब्बे बढ़तेहैं, तब नई टहनियां सूख जाती हैं. ऊपर की पत्तियां अपना हरा रंग खो देती हैं और धीरेधीरे सूख जाती हैं. इस रोग का ज्यादा असर अक्तूबरनवंबर में दिखाई पड़ताहै.

इलाज : छंटाई के बाद गाय का गोबर व चिकनी मिट्टी मिला कर कटे भाग पर लगाना फायदेमंद होताहै. संक्रमित भाग में 3 इंच नीचे सेछंटाई के बाद बोर्डो मिक्चर 5:5:50 या 0.2 फीसदी कापर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव रोग की रोकथाम में बेहद कारगर होताहै.

कुछ खास प्रजातियां

अंबिका: आम्रपाली व जनार्दन पसंद किस्मों के संकरण से विकसित इस किस्म को साल 2000 में संस्थान द्वारा पेश किया गया. इस का पेड़ कम फैलाव लिए हुए और कम शाखाओं वाला होता है. नियमित फलत वाली यह किस्म मौसम में देर से तैयार होतीहै. इस के फल का आकार तिरछा व अंडाकार होता है और औसत वजन 250-350 ग्राम होता है. तैयार होने पर इस के फल का रंग बैगनीहरा होता है. पकने पर यह चमकीला पीला व लाल हो जाताहै. पके हुए फल का गूदा कम रेशे वाला व सख्त होता है. इस का गूदा नारंगीपीला होताहै. 10 साल की अवस्था होने पर इस का औसत फल उत्पादन 80 किलोग्राम प्रति पेड़ तक होताहै. विदेशी बाजार में इस के निर्यात की अच्छी संभावनाएं हैं.

अरुनिका : इस के पेड़ का आकार बौना होताहै. यह नियमित फलत वाली किस्म है, जिस में ऐंथ्रेकनोज को सहने की कूवत होती है. इस के फल आकर्षक होतेहैं और गूदा सख्त होता है. 10 साल की अवस्था होने पर इस का औसत फल उत्पादन 60 किलोग्राम प्रति पेड़ तक होता है. विदेशी बाजार में इस के निर्यात की अच्छी संभावनाएं हैं.

दशहरी : लखनऊ के पास दशहरी गांव में हुई उत्पत्ति के कारण इस किस्म को दशहरी नाम से जाना जाता है. दशहरी उत्तर भारत की खास व्यावसायिक किस्म है और देश के उम्दा आमों में इस का खास स्थान है. इस का फल आकार में मध्यम व लंबा होताहै. इस का औसत वजन 200-250 ग्राम होता है. इस के पके फलों का रंग पीला होता है, जो मध्य मौसम में पकतेहैं. इस के फलों की गुणवत्ता अच्छी व भंडारण कूवत मध्यम होती है.

लंगड़ा : उत्तर भारत के बनारस, गोरखपुर व बिहार क्षेत्र में उगाई जाने वाली आम की इस किस्म के फल मध्यम, अंडाकार व हलके हरेपीले रंग के होते हैं. इस के फल मध्यम मौसम में पकतेहैं. फलों की गुणवत्ता उत्तम और भंडारण कूवत मध्यम होती है. इस के फलों में मिठास व खटास का अच्छा मिश्रण होता है, जिस से यह बेहद स्वादिष्ठ किस्म मानी जातीहै. साथ ही फलों में गूदे की मात्रा ज्यादा व गुठली पतली होती है. बिहार में इसे मालदा नाम से भी जाना जाताहै.

चौसा : आम की इस किस्म की उत्पत्ति उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के संडीला नामक स्थान में एक तालुकेदार के बाग में संयोगवश एक बीजू पेड़ के रूप में हुई. इस की खास महक व स्वाद के कारण इसे भारत के उत्तरी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर उगाया जाता है. इस के फल बड़े, चपटे व अंडाकार होतेहैं. इस के फलों का रंग हलका पीला होता है और गुणवत्ता अच्छी होती है. इस के फल रसीले होतेहैं. आम की यह किस्म देर में पक कर तैयार होती है.

आम्रपाली : आम की यह किस्म दशहरी व नीलम से विकसित की गईहै. इस के पेड़ बौने होतेहैं और फल देर में पकतेहैं. इस के फल मध्यम आकार के और स्वादिष्ठ होतेहैं. फलों की भंडारण कूवत अच्छी होती है. यह किस्म सघन बागबानी के लिए अच्छी है. 1 हेक्टेयर में इस किस्म के 1600 पौधे लगाए जा सकतेहैं, जो 5 साल के बाद 16 टन प्रति हेक्टेयर फल देने की कूवत रखतेहैं. ज्यादा विटामिन ‘ए’ व छोटे आकार के कारण गृह वाटिका में इस का खास महत्त्व है.

मल्लिका : आम की यह संकर किस्म नीलम और दशहरी के संकरण से विकसित की गई. इस के फल पीले और मध्यम बड़े आकार के होतेहैं. इस के फल का औसत भार 300 ग्राम होता है. फलों में गूदे की मात्रा काफी होती है व गुठली पतली होतीहै. इस के फलों की गुणवत्ता व भंडारण कूवत अच्छी है. यह देर से तैयार होने वाली किस्म है. आंध्र प्रदेश व कर्नाटक आदि राज्यों में इस की व्यावसायिक खेती बढ़ रही है. यह किस्म प्रसंस्करण के लिए अच्छी है.

तोड़ाई के बाद की देखभाल

* उत्पादित आमों का करीब 25-30 फीसदी भाग बाग से ग्राहकों तक पहुंचने में नष्ट हो जाताहै. यदि तोड़ाई, पेटी बंदी व भंडारण की सही तकनीक अपनाई जाए तो इस नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकताहै.

* आम के फल 12-15 हफ्ते बाद प्रजाति के मुताबिक पूरी तरह तैयार होते हैं. दशहरी व लंगड़ा आम 12 हफ्ते और चौसा व मल्लिका आम 15 हफ्ते में तैयार होतेहैं.

* तैयार फलों की तोड़ाई 8-10 मिलीमीटर लंबी डंठल केसाथ करनी चाहिए, जिस से फलों पर चेप नहीं लगे व पकने पर फल दाग रहित हों. तोड़ाई के समय फलों को चोट व खरोच न लगने दें.

* तोड़ाई के लिए संस्थान द्वारा विकसित यंत्र हैं. इस से प्रति घंटे 600-800 फल तोड़े जा सकतेहैं.

* तोड़ाई के बाद फलों कोछायादार जगह में रखें और मिट्टी लगने से बचाएं.

* फलों की पैकिंग के लिए 0.5 फीसदी छेद वाले 4 किलोग्राम कूवत वाले गत्ते के बक्से संस्थान द्वारा तैयार किए गएहैं, जो भंडारण व परिवहन के लिए सही होते हैं.

* तोड़ाई के बाद ऐंथ्रेक्नोज, स्टेम एंड राट व ब्लैक राट रोगों से बचाने के लिए फलों को 0.05 फीसदी कार्बेंडाजिम के कुनकुने पानी में 10 मिनट तक डुबो कर रखने के बाद सुखा कर पेटीबंद करना चाहिए.

* शीत भंडारण विधि में आम की तमाम प्रजातियों जैसे दशहरी, मल्लिका व आम्रपाली को 2 डिगरी सेंटीग्रेड, लंगड़ा को 15 डिगरी सेटीग्रेड व चौसा को 10 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान व 85-90 फीसदी आपेक्षित आर्द्रता पर 2-3 हफ्ते तक रखा जा सकताहै.

* दशहरी किस्म के फलों को 2 फीसदी कैल्सियम क्लोराइड डाईहाइडे्रट के घोल में 500 मिलीमीटर वायुमंडलीय दाब पर 5 मिनट के लिए उपचारित कर के कम तापमान पर 27 दिनों तक भंडारित किया जा सकता है.

* पूरी तरह तैयार फलों को 250-750 पीपीएम ईथरल के कुनकुने पानी केघोल में 5 मिनट तक डुबाने के बाद पूरी तरह सुखा

कर भंडारित करें, तो सभी फल आकर्षक पीले रंग में समान रूप से पकतेहैं.                                       

– डा. बालाजी विक्रम व पूर्णिमा सिंह सिकरवार

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