डा. अरविंद कुमार, डा. ऋषिपाल

भारत में लीची का उत्पादन  विश्व में दूसरे स्थान पर है. लीची के फल पोषक तत्त्वों से भरपूर और स्फूर्ति देने वाले होते हैं. इस के फल में शर्करा  की मात्रा 11 फीसदी, प्रोटीन 0.7 फीसदी, खनिज पदार्थ 0.7 फीसदी और वसा 0.3 फीसदी होती है.

लीची के फल से कई तरह के शरबत व जैम, नैक्टर कार्बोनेटैड पेय व डब्बाबंद उत्पाद बनाए जा सकते हैं. लीची नट फल को सुखा कर बनाया जाता है, जो कि बड़े ही चाव से खाया जाता है. लीची के कच्चे और खट्टे फलों को सुखा कर खटाई के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है.

साल 2018-19 में भारत में लीची का रकबा 93,000 हेक्टेयर व उत्पादन 7,11,000 मिलियन टन हुआ. देश में लीची की बागबानी खासतौर से उत्तर बिहार, देहरादून की घाटी, उत्तर प्रदेश के तराई वाले इलाके और झारखंड के छोटा नागपुर इलाके में की जाती है.

लीची के फल अपने मनमोहक रंग, स्वाद और गुणवत्ता के चलते भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया में अपना खास पहचान बनाए हुए हैं. लीची के सफल उत्पादन के लिए मुनासिब किस्मों का चयन बेहतर कृषि तकनीक व पौध संरक्षक के तरीकों को अपना कर किसान मुनाफा ले सकते हैं.

जमीन और आबोहवा : लीची की बागबानी सभी तरह की मिट्टी, जिस में पानी के निकलने के इंतजाम वाली बलुई दोमट मिट्टी सब से कारगर पाई गई है. इस का पीएच मान 6.0 से 7.6 के बीच हो.

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लीची के सफल उत्पादन के लिए नम या आर्द्र उपोष्ण जलवायु का होना जरूरी है. बारिश आमतौर पर 100-140 सैंटीमीटर पालारहित भूभाग व तापमान 15-30 डिगरी सैंटीग्रेड में पौधों की वानस्पतिक बढ़वार अच्छी होती है.

फलों की तुड़ाई के समय उच्च तापमान 30 डिगरी सैंटीग्रेड से ले कर 40 डिगरी सैंटीग्रेड और आपेक्षित आर्द्रता 84 फीसदी फायदेमंद है.

लीची की उन्नत किस्मों की सिफारिश : अर्ली बेदाना, शाही, त्रिकोलिया, अझोली, अर्ली लार्जरेड, कलकतिया, रोज सैंटेड, मुजफ्फरपुर, अर्ली सीडलैस, देहरादून, चाइना, स्वर्ण?रूपा, सीएचईएस 2, कस्बा, पूर्वी वगैरह इस की उन्नत किस्में हैं.

लीची की खासमखास

किस्मों का खुलासा

कलकतिया : इस किस्म के फल बड़े, लुभावने व फलों के गुच्छे घने लगते?हैं. इस के फल रसभरे और स्वाद से भरे होते हैं.

देहरादून : यह लगातार फल देने वाली किस्म है. इस के फल लुभावने रंग वाले होते हैं. इस के फल मीठे, नरम, रसभरे और स्वाद होते हैं.

शाही : इस किस्म के फल गोल व गहरे लाल रंग वाले होते?हैं. फल में गूदे की मात्रा ज्यादा होती है. इस किस्म के फल में खुशबू आती है. इस किस्म के 15-20 साल के पौधे से 100-120 किलाग्राम उपज हर साल हासिल की जा सकती है.

त्रिकोलिया : फल गोल व लाल रंग के होते?हैं. फलों का वजन 14.5 ग्राम होता है, जिस में 11.4 ग्राम खाने योग्य गूदा पाया जाता है. पूरी तरह विकसित एक पेड़ से 90-110 किलोग्राम फल हर साल मिल जाते?हैं.

रोज सैंटेड : इस किस्म के फलों में गुलाब जैसी खुशबू आती?है और फल फटने की समस्या देखी गई है. पूरी तरह विकसित पौधे से 90-100 किलोग्राम फल लिया जा सकता है.

अर्ली बेदाना : फलों में बीज बहुत ही?छोटा होता है. इस किस्म के फलों का वजन 18.4 ग्राम होता है. इस में 14.3 ग्राम गूदा पाया जाता है.

चाइना: फल बड़े ही नुकीले शंक्वाकार और चटकने की समस्या से मुक्त होते हैं. फलों का रंग गहरा लाल व गूदे की मात्रा अधिक होने के कारण इस की अत्यधिक मांग है. एक?बड़े पेड़ से 120-150 किलोग्राम उपज हर साल मिल जाती है.

स्वर्ण रूपा : इस किस्म के फल देरी से पकते?हैं. यह फल चटकने की समस्या से मुक्त होते हैं. फल लुभावने, गहरे गुलाबी रंग, जिन में बीज का आकार छोटा होता है. फल का गूदा अधिक जायकेदार व मीठा होता है.

सीएचईएस 2 : फल शंक्वाकार और गहरे लाल रंग व फलों का वजन 20-22 ग्राम व 15-20 फलों के गुच्छे में आते हैं.

कस्बा : फल बड़े यानी तकरीबन 20.2 ग्राम, गूदे की मात्रा अधिक व फल चटकने की समस्या से मुक्त होते हैं. इस किस्म के फल अलगअलग मंजरी पर आते हैं.

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पूर्वी : फल छोटे और फलत अधिक होती है. एक बड़े पेड़ से तकरीबन 80-100 किलोग्राम फल की उपज हर साल मिल जाती है.

पौध तैयार करना : वैसे तो गूटी, भेंट कलम, दाब कलम, मुकुलन व बीज द्वारा पौधे तैयार कर सकते हैं, लेकिन व्यावसायिक खेती के लिए गूटी विधि द्वारा तैयार पौधों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

गूटी द्वारा पौध तैयार करने के लिए जूनजुलाई माह में चुनी हुई डाली पर शीर्ष से 40-50 सैंटीमीटर पहले गांठ के पास

2 सैंटीमीटर की छाल उतार कर छल्ला बना देते हैं. छल्ले के ऊपरी सिरे पर 1,000 पीपीएमआई बीए के पेस्ट का लेप लगा कर छल्ले को नम मौस घास से ढक कर 400 गेज की पौलीथिन का टुकड़ा लपेट कर सुतली से बांध देना चाहिए.

गूटी बांधने के तकरीबन 2 माह के अंदर जड़ें पूरी तरह से निकल आती हैं. इस समय डाली की तकरीबन आधी पत्तियों को निकाल कर व उसे मुख्य पौध से काट कर नर्सरी में कम छायादार जगह पर लगा देना चाहिए. इस प्रकार गूटी बांधने से जड़ें अच्छी निकलती हैं और पौध स्थापना अच्छी होती है.

पौध रोपण : लीची का पूरा विकसित पेड़ आकार में बड़ा होता है इसलिए इसे तकरीबन 10×10 मीटर की दूरी पर लगाना चाहिए.

लीची के पौधे की रोपाई से पहले खेत में लाइन बना कर पेड़ लगाने की जगह तय कर लेते हैं. इस के बाद निशान लगी जगह पर अप्रैलमई महीने में 90×90×90 सैंटीमीटर आकार के गड्ढे खोद कर मिट्टी को अच्छी तरह फैला देना चाहिए.

बारिश शुरू होते ही जून महीने में 2-3 टोकरी 25-30 किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद, 2 किलोग्राम करंज या नीम की खली, 1.0 किलोग्राम हड्डी का चूरा या सिंगल सुपर फास्फेट व 50 ग्राम हेप्टाक्लोर या 20 ग्राम थीमेट 10 जी को खेत की ऊपरी सतह की मिट्टी में अच्छी तरह मिला कर गड्ढे भर देने चाहिए.

बारिश में गड्ढे की मिट्टी दब जाने के बाद उस के बीच में खुरपी की मदद से पौधों की पिंडी के आकार की जगह बना कर पौधा लगा देना चाहिए.

पौधा लगाने के बाद उस के पास की मिट्टी को ठीक से दबा कर और एक थाला बना कर 2-3 बालटी यानी 25-30 लिटर पानी उस में डाल देना चाहिए.

सिंचाई: लीची के सफल उत्पादन के लिए मिट्टी में मुनासिब नमी का रहना बेहद जरूरी है. इस के लिए जल संरक्षण व मल्चिंग का इस्तेमाल लाभदायक माना जाता है.

लीची के पौधों में फल पकने के 6 हफ्ते पहले अप्रैल के शुरू में पानी की कमी से फल की बढ़वार रुक जाती है और फल चटकने लगते?हैं इसलिए अप्रैल व मई माह में 2-3 दिनों के फासले पर हलकी सिंचाई करने से लीची के फलों में गूदे का विकास अच्छा और फल चटकने की समस्या कम हो जाती?है.

पेड़ों की कटाईछंटाई?: शुरू के 3-4 सालों की अवांछित शाखाओं को निकाल कर पौधों को तय आकार देना चाहिए. जमीन से तकरीबन आधा मीटर दूरी तक की शाखाओं को निकाल देना चाहिए ताकि मुख्य तने का सही विकास हो सके.

उस के बाद में 3-4 मुख्य शाखाओं को बढ़ने देना चाहिए जिस से पेड़ का आकार सुडौल, ढांचा मजबूत व फसल अच्छी आती है.

फलों को तोड़ते समय 10 सैंटीमीटर लंबी टहनी को तोड़ देना चाहिए, जिस से अगले साल स्वस्थ शाखाएं निकलती हैं और फसल अच्छी आती है.

अंत:फसल करें : लीची के पेड़ पूरी तरह तैयार होने में तकरीबन 15-16 साल का समय लगता है, इसलिए लीची के पौधों के बीच की खाली पड़ी जमीन का इस्तेमाल दूसरे फलदार पौधों व दलहनी फसलों या सब्जियों को लगा कर किया जा सकता है.

इस के अलावा मिट्टी की उर्वराशक्ति में भी काफी इजाफा होता है. लीची के बाग में अमरूद, शरीफा व पपीता जैसे फल के पेड़ लगाए जा सकते हैं.

फूल और फल: गूटी द्वारा तैयार लीची के पौधों में 4-5 सालों के बाद फूल व फल आना शुरू हो जाता है. फूल आने के समय से तकरीबन 2 माह पहले पौधों में सिंचाई बंद करने से मंजर बहुत ही बढि़या आते हैं.

लीची में परागण मधुमक्खियों द्वारा होता है इसलिए फूल आने के समय कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल न करें वरना फलों पर बुरा असर पड़ेगा.

लीची में मुख्य रूप से नर, मादा व उभयलिंगी फूल आते हैं, जिन में से केवल मादा व उभयलिंगी फूलों में ही फल बनते?हैं इसलिए अधिक फलन के लिए मादा फूलों का परागण जरूरी होता है.

फलों का फटना : फल विकसित होने के समय मिट्टी में नमी की कमी और तेज गरम हवाओं से फल अधिक फटते हैं. आमतौर पर जल्दी पकने वाली किस्मों में फल चटकने की समस्या देर से पकने वाली किस्मों की अपेक्षा अधिक पाई जाती है. इस के लिए वायुरोधी पेड़ों को बाग के चारों तरफ लगाएं और फरवरी माह में पौधों के नीचे मल्चिंग करें.

मिट्टी में नमी बनाए रखने के लिए अप्रैल महीने के पहले हफ्ते से फलों के पकने और उन की तुड़ाई तक बाग की हलकी सिंचाई करते रहनी चाहिए और पौधों पर पानी का छिड़काव करें.

अप्रैल माह में पौधों पर 10 पीपीएम एनएए और 0.4 फीसदी बोरेक्स के छिड़काव से फलों के फटने की समस्या कम हो जाती है.

फलों का झड़ना?: जमीन में नाइट्रोजन व पानी की कमी और गरम व तेज हवाओं के चलते लीची के फल छोटी अवस्था में ही झड़ने लगते?हैं. फल लगने के बाद जमीन में नाइट्रोजन व पानी की कमी न होने दें और जरूरत पड़ने पर एनएए (प्लैनाफिक्स) के 100 पीपीएम घोल का छिड़काव करें.

लीची के खास कीट

लीची फल बेधक व टहनी बेधक : इस कीट के लार्वा नई कोपलों की मुलायम टहनियों के भीतरी भाग को खाते हैं. नतीजतन, ग्रसित टहनियों में फूल व फलन ठीक से नहीं होता है. इस के प्रकोप से फल झड़ जाते हैं.

नियंत्रण : फल के लौंग आकार होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल कीटनाशक का छिड़काव 0.5-0.7 मिलीलिटर या नोवाल्यूरान 10 ईसी 1.5 मिलीलिटर नामक कीटनाशक का 2 छिड़काव 10-15 दिनों के फासले पर करें.

लीची की मकड़ी : इस कीट के नवजात और वयस्क दोनों ही नई कोपलों, पत्तियों, पुष्पक्रमों व फलों से लगातार रस चूसते हैं.

इस के लक्षण शुरू में निचली सतह पर धूसर रंग के मखमली सतह के रूप में बनते हैं. परिणामस्वरूप प्रकाश संश्लेषण की क्रिया रुक जाती है.

नियंत्रण: जुलाई माह में क्लोरफेनापार 10 ईसी या प्रोपरगाइट 57 ईसी मकड़ीनाशक कैमिकल का 3 मिलीलिटर की दर से 15 दिनों के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करना चाहिए.

लीची का बग : इस जाति के अर्भक व वयस्क दोनों ही नुकसान पहुंचाते?हैं. ये मुलायम पत्तियों, टहनियों व फलों का रस चूस कर नुकसान पहुंचाते हैं.

रोकथाम : मिली बग अगर पौधे पर चढ़ गए हों तो क्लोरोपाइरीफास या मिथाइल डेमेटान या इमिडाक्लोप्रिड या रोगोर 0.08 फीसदी का छिड़काव करें.

नीबू का काला एफिड : कीटों द्वारा कोशिका रस चूस लिए जाने के कारण पत्तियां, कलियां और फूल मुरझा जाते हैं. इस के साथसाथ यह कीट एक किस्म के विषाणुओं को भी फैलाता है.

रोकथाम : इस कीट की रोकथाम के लिए औक्सीडिमेटान मिथाइल या फिर डाईमिथोएट के 0.03 या इमिडाक्लोप्रिड 17 एसएल घोल का छिड़काव करें.

लीची के प्रमुख रोग

पत्ती मंजर और फल झुलसा : इस रोग की शुरुआत पत्तियों के आखिरी सिरे पर ऊतकों के सूखने से होती है. इस के रोग कारक मंजरों को झुलसा देते हैं, जिस से प्रभावित मंजरों में कोई फल नहीं लग पाते.?

रोकथाम : इस रोग पर नियंत्रण करने के लिए थायोफेनेट मिथाइल 75 डब्लूपी 2 ग्राम प्रति लिटर या डाईफेनोकोनाजोल

25 ईसी 1 मिलीलिटर प्रति लिटर या एजोक्सीस्ट्रोबिन 250 एससी 0.8 मिलीलिटर प्रति लिटर के घोल का छिड़काव करने से कुछ हद तक काबू पाया जा सकता है.

श्याम वर्ण यानी एंथ्रेक्नोज : यह फलों के साथसाथ पत्तियों और टहनियों को भी प्रभावित कर सकते हैं. फलों के छिलकों पर छोटेछोटे 0.2-0.4 सैंटीमीटर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं.

रोग की अधिक तीव्रता की स्थिति में काले धब्बों का फैलाव फल के छिलकों पर आधे हिस्से तक हो सकता है.

रोकथाम : इस रोग की तीव्रता ज्यादा होने पर रोकथाम के लिए थायोफेनेट मिथाइल 75 डब्लूपी 2 ग्राम प्रति लिटर या डाईफेनोकोनाजोल 25 ईसी 1 मिलीलिटर प्रति लिटर के घोल का छिड़काव करें.

म्लानि या उकटा रोग : यह रोग पत्तियों के हलके पीले होने के साथसाथ मुरझाने से शुरू होती है जो क्रमिक उत्तरोत्तर बढ़ती हुई 4-5 दिनों में पेड़ को पूरी तरह सुखा देती है. जड़ों और फ्लोएम ऊतकों पर कुछ भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं, जो बाद में जाइलम ऊतकों में भी फैल जाते?हैं. इस की वजह से पानी का बहाव रुक जाता है.

रोकथाम : हैक्साकोनाजोल 5 एससी 1 मिलीलिटर प्रति लिटर या कार्बंडाजिम 50 डब्लूपी 2 ग्राम प्रति लिटर से पेड़ के सक्रिय जड़ क्षेत्र को भिगोएं.

फल विगलन : इस रोग के फैलने से छिलका मुलायम और फल सड़ने लगते हैं. प्रभावित फलों के छिलके भूरे से काले रंग के हो जाते हैं. सड़े हुए भाग पर फफूंद दिखने लगती है. फल फटने के बाद विगलन रोग जनकों के माइसिलियम फटे हुए भाग में पहुंच जाते हैं.

रोकथाम : फल तुड़ाई के 15-20 दिन पहले पेडों पर कार्बंडाजिम 50 डब्लूपी 2 ग्राम प्रति लिटर या थायोफेनेट मिथाइल 50 डब्लूपी 2 ग्राम प्रति लिटर या एजोक्सीस्ट्रोबिन 23 एससी 1 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी के घोल का छिड़काव करें.

उपज : लीची से प्रति पेड़ औसतन 1.5 से 2.0 क्विंटल उपज मिल जाती है. एक हेक्टेयर में तकरीबन 150 से 200 क्विंटल उपज मिल जाती है.

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