भारत गांवों का देश है और उस का आधार स्तंभ खेती है. खेती की तरक्की के बिना देश की तरक्की मुमकिन नहीं है. यह कड़वा सच है कि स्वतंत्र भारत के 7 दशक बीत जाने के बाद भी देश में ऐसी कोई भी दीर्घकालीन योजना सामने नहीं आई है जो अन्नदाता के लिए खुशहाली की गारंटी हो.
नए भारत के सुनहरे सपनों में अन्नदाता कहीं नजर नहीं आता, वह बदहाल है और अब नाउम्मीद भी हो चला है. मोदी सरकार के इस कार्यकाल का आखिरी बजट भी किसानों की उम्मीदों को लहूलुहान करने वाला रहा. कहने को तो कृषि क्षेत्र के लिए बजट घोषणा में 13 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है जो कुल बजट वृद्धि के बराबर है, लेकिन उस में कर्जमाफी नदारद है.
वैसे, किसानों को बजट में बढ़ोतरी का लाभ कैसे और किस प्रकार मिलेगा, यह भी बड़ा सवाल है.
किसानों को उन की उपज की लागत का ड़ेढ गुना दाम दिलाने का ऐलान तो किया गया है, पर लागत की गणना का फार्मूला नहीं बदला गया है. इस समय कृषि विकास की दर निम्नतम स्थिति और केंद्र सरकार की नीतियां खेतीकिसानी के लिए संकट पैदा करने वाली हैं. खेती को मुनाफे की राह पर ले जाने वाला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नारा अब बेदम हो गया है.
इस साल कृषि पर कर्ज 10 फीसदी देने का ऐलान किया गया है और किसानों की आय को दोगुना करने की बात की जा रही है. कड़ी मेहनत से अच्छी फसल पैदा करने वाला किसान मार्केटिंग के मोरचे पर लाचार है.
खरीफ फसल में न्यूनतम समर्थन मूल्य का डेढ़ गुना ज्यादा देने का वादा किया गया है. यह फसल अक्तूबर माह तक आएगी और उस के ठीक बाद लोकसभा चुनाव है. जाहिर है, इस में किसानों के हितों की चिंता कम लोकलुभावन झांसा देने की कोशिश ज्यादा नजर आती है.
कृषि विकास के बुनियादी ढांचे को दुरुस्त करने की कोई फौरी योजना नहीं है, जबकि राहत की उम्मीदें साल 2022 के सपनों में हैं. पानी, बिजली, वेयरहाउस, कोल्ड स्टोरेज और अच्छी क्वालिटी वाले बीजों की उपलब्धता के बिना किसानों की आय दोगुनी कैसे होगी, इस का किसी को पता नहीं, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि जब हम साल 2022 में स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगांठ मना रहे होंगे, तब हमारे किसानों की आय दोगुनी होनी चाहिए.
भारत के गांवों में एक कहावत प्रचलित है कि किसान कर्ज में ही जन्म लेता है और कर्ज चुकातेचुकाते ही मर जाता है. जाहिर है, सपने आसमान पर हैं, लेकिन हकीकत में किसान जमीन के नीचे दबता चला जा रहा है.
किसान क्रेडिट कार्ड मछुआरों और पशुपालकों को देने की घोषणा तो की गई है, लेकिन बिना पुख्ता इंतजाम किए किसानों की क्रेडिट बढ़ेगी कैसे, यह सवाल मुंहबाएं खड़ा है. वहीं दूसरी ओर तमाम दावों के बीच देश का किसान ‘न्यू इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’ और ‘समर्थ भारत’ के बीच पिस रहा है.
भारत की आधी आबादी की जीवनरेखा खेती है, जो देश के कुल कार्यबल का 48.9 फीसदी है. सपनों के ‘न्यू इंडिया’ और सचाई के भारत के बीच यह किसान खड़ा है, जो देश के कुल कार्यबल के 55 फीसदी का योगदान देने वाली खेती के दम पर जीता है.
बाजार के उछाल और ठहराव के लिए सरकारें ज्यादा संजीदा रही हैं, लेकिन पैदावार में आई तेजी के बाद कीमतों के धड़ाम से गिरने को ले कर किसानों के लिए अब तक कोई ठोस योजना नहीं बन पाई है.
भारत के कृषि मंत्री राधामोहन सिंह कहते हैं कि खेती और किसानों के हित में सरकार ने ठोस कदम उठाए हैं. फसल बीमा योजना और राष्ट्रीय कृषि बाजार के दम पर फसलों की वाजिब कीमत मिलने के साथ ही किसानों को साल 2022 तक दोगुनी आमदनी हासिल करने का लक्ष्य तय किया गया है और इसीलिए देश में 14 अप्रैल, 2016 को राष्ट्रीय कृषि बाजार की शुरुआत की गई थी.
यह इंटरनैट आधारित पोर्टल है. इस पोर्टल पर किसानों को फसलों के भंडारण, सुरक्षा की तमाम सुविधाएं और माली मुद्दे के दावे किए गए हैं, लेकिन सचाई इस के उलट है.
महाराष्ट्र राज्य में भी फलसब्जियों की वाजिब कीमत न मिलने से नाराज किसानों ने सड़क पर उन्हें फेंक दिया. यहां तक कि सड़कों पर दूध भी बहाया गया, वहीं छत्तीसगढ़ में टमाटर की बंपर पैदावार के बाद कोई खरीदार नहीं मिला और महज 50 पैसे प्रति किलोग्राम टमाटर मिलने से नाराज किसानों ने सैकड़ों टन टमाटर सड़कों पर फेंक दिया. तेलंगाना के किसानों ने भी मिर्च की फसल को जला डाला.
दरअसल, तेलंगाना में साल 2010 में मिर्च का भाव प्रति क्विंटल 12,000 रुपए मिल रहा था, जो साल 2017 में घट कर प्रति क्विंटल 2000 रुपए तक पहुंच गया. ऐसा मिर्च की अच्छी फसल हो जाने से हुआ.
साल 2016 में प्रधानमंत्री फसल योजना को लागू किया गया और यह बताया गया कि यह कम प्रीमियम पर किसानों के लिए मुहैया है. इसी तरह परंपरागत कृषि विकास योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, ब्याज रियायत योजना, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन जैसी योजनाओं के सहारे किसानों को राहत देने के दावे अब हांफते नजर आ रहे हैं.
साल 2022 तक सरकार किसानों की आमदनी को दोगुना करने की बात कह रही है. इस के लिए जरूरी है कि अगले 5 साल तक खेती की सालाना वृद्धि दर 14 फीसदी हो. जो इस समय अच्छे मानसून के बाद भी मुश्किल से 4.1 फीसदी पर पहुंच सकी है. नोटबंदी और जीएसटी से अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में है और इस का असर किसानों पर भी देखने को मिला.
साल 2014 में इस सरकार ने अपने पहले बजट में सब से ज्यादा प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में कृषि को शामिल कर इस से होने वाली आमदनी को दोगुना करने की बात कही थी. लेकिन किसानों की समस्याएं बदस्तूर जारी हैं.
सरकार ग्रामीण कृषि विकास को कारपोरेट की तर्ज पर बढ़ावा देने का दावा करती है, जिस से आम किसान कदमताल मिलाने को ले कर आशंकित है.
जाहिर है, सरकार की योजनाओं में ग्रामोदय से भारत उदय के बीच में कहीं वैश्विक संस्कृति है, जिस में कल्पना का एक छोर भले ही देश के किसानों के हाथों में हो, लेकिन दूसरा छोर खुले बाजार की पूंजीवादी दुनिया में खत्म होता है.
परंपरागत खेती को कृषि उपकरणों से जोड़ कर किसानों के फायदे की बात कही जाती रही है. भारत के 38 फीसदी बड़े किसान, 18 फीसदी मझले किसान और महज 1 फीसदी सीमांत या छोटे किसान कृषि मशीनरी या ट्रैक्टर का इस्तेमाल करते हैं.
खेती के काम में बेहतर उपकरणों के इस्तेमाल से न केवल कड़ी मेहनत से बचा जा सकता है, बल्कि मेहनत की लागत कम कर के फसलों का बचत मूल्य बढ़ाया जा सकता है.
देश में कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए किसानों को बड़े पैमाने पर कृषि उपकरण और ट्रेनिंग दिए जाने की जरूरत है. साथ ही, फसल लोन देने पर तो सरकार सोचती है, लेकिन कृषि औजार खरीदना बेहद महंगा होता जा रहा है. बैंक भी ट्रैक्टरों जैसी लंबी अवधि पर जरूरत के हिसाब से 12 फीसदी ब्याज वसूलते हैं.
देश में ‘राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन’ भारतीय खेती को पर्यावरण में हुए बदलाव से होने वाले नुकसान और बुरे असर से बचाने के लिए काम कर रहा है. यह मिशन जैविक खेती और फसलों की नई किस्मों, खासतौर से ताप प्रतिरोधक कूवत वाली फसलों को खोजना और वैकल्पिक खेती को बढ़ावा देने का काम कर रहा है.
पिछले 18 सालों में हर दिन 2052 किसान रोजगार के लिए शहरों की ओर जा रहे हैं. इस की खास वजह खेती की लागत बढ़ने और फसलों के नुकसान से डरना है. वहीं भारत में अमूमन हर आधा घंटे में एक किसान अपनी जान देता है. किसानों की बेहतर स्थिति को ले कर कोई भी राज्य आश्वस्त नजर नहीं आता.
भारत की कुल अधिकतम सिंचाई कूवत 140 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर है. इसे बढ़ाने के लिए देश की नदियों को जोड़ना होगा, पहाड़ी इलाकों में बरसात के पानी को जमा करने के लिए तालाब बनाने और गांवों में ज्यादा से ज्यादा पोखर बनाने पर जोर देना होगा.
बड़े लैवल पर आपूर्ति और मांग के बीच संतुलन बनाए रखने को ले कर कोई ठोस योजना ही नहीं है. फसल कटाई के तुरंत बाद कीमतें तेजी से गिर जाती हैं, ऐसे में निराश किसान खुदकुशी जैसे कदम उठाने को मजबूर है.
देश में आपूर्ति का समुचित इंतजाम और भंडारण के साथ ही उत्पादन व खपत के क्षेत्रों को आपस में जोड़ने वाले परिवहन की सुविधा की कमी हमेशा देखी गई है. वहीं दूसरी ओर फूड प्रोसेसिंग के जरीए भी उपज को लंबे समय तक खराब होने से बचाया जा सकता है. लेकिन जरूरी संसाधन जुटाने का जिम्मा जिन का है, वे किसानों की समस्याओं को तत्कालीन राहत देने के नाम पर योजनाओं की आड़ ले लेते हैं. इस तरह से देशभर के किसानों की हालत और भी बुरी होती जा रही है.
स्वतंत्र भारत में किसान कल्याण के लिए हरित क्रांति संजीवनी की तरह थी, जिस ने उन की जिंदगी को मजबूत बनाया. इस के बावजूद देश में कर्जमाफी के लोकलुभावन नारे तो दिए गए, लेकिन खेती कैसे फायदे का धंधा बने, इस की कोई पुख्ता नीति नहीं बनाई गई.
यदि बीजों की उन्नत प्रजातियां, मिट्टी की जांच और जैविक खादों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया गया होता तो खेती में इतनी दिक्कतें न आतीं. साथ ही, परिवहन, भंडारण और दूरसंचार की सुविधाओं की कमी, जमीन की कमी, माहिरों की कमी, राजनीतिक दांवपेंचों का खतरा और माली मदद की कमी कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन्होंने खेती को निरंतर प्रभावित किया है.
दरअसल, किसानों की आमदनी भी न के बराबर है और इस के सुधार के अल्पकालीन तरीके जानलेवा साबित हो रहे हैं. न्यूनतम समर्थन मूल्य को ले कर अभी भी नीति साफ नहीं है. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें जस की तस लागू होने से अन्नदाता को राहत मिल सकती थी, लेकिन वह महज चुनावी जुमला बन कर रह गया है.
डा. ब्रह्मदीप अलूने
असिटैंट प्रोफेसर, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन