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फिर बातों ही बातों में संध्या को पुनर्विवाह की सलाह सभी ने दे डाली थी. संध्या को बहुत अटपटा लगा था यह हासपरिहास, लेकिन 2-4 दिन बाद उसे फिर ऐसे ही वाक्य सुनने को मिले थे. एक रोज तो अचानक ही संध्या के औफिस का सहकर्मी उस के समक्ष अपने एक मित्र शेखर को ले कर उपस्थित हो गया था और बिना किसी भूमिका के उस ने विवाह प्रस्ताव उस के सम्मुख रख दिया था. शेखर ने उस के सामने बैठ कर स्वयं ही अपना परिचय दिया था कि वह प्रतिष्ठित और उच्च पद पर है और पत्नी की मृत्यु हुए कई वर्ष बीत चुके हैं. एक डाक्टर पुत्र है, जो विवाहित है और 2 छोटे बच्चों का पिता है. पिता के अकेलेपन की त्रासदी पुत्र को भीतर ही भीतर बेचैन किए हुए है. इसलिए उस का आग्रह है कि वे अपनी जीवनसंध्या में अपने लिए उपयुक्त साथी खोज लें.

शेखर का यह आकस्मिक प्रस्ताव संध्या को असंतुलित कर गया था, लेकिन उस के बाद से शेखर के फोन संध्या के पास बराबर आने लगे थे. संध्या कभी तो संक्षिप्त वार्तालाप कर फोन बंद कर दिया करती थी, तो कभी रिसीव ही नहीं करती थी. कभी फोन उठाती लेकिन मुंह से बोल न निकलते. खामोशी की भी अपनी ही जबान होती है, जिसे फोन करने वाला तुरंत समझ जाता है. लेकिन जिस ‘हां’ को शेखर सुनना चाहता था वह सहमति नदारद रहती.

संध्या की ससुराल की तरफ से तो कोई रिश्तेदारी थी नहीं, मायके में पिताजी थे और 2 भाई थे. उस ने अपनी भाभी से शेखर के प्रस्ताव के विषय में बात की थी, तो बात पूरे घर में फैल गई थी. किसी की तरफ से अच्छा रेस्पौंस नहीं मिला था. संध्या के पिताजी तो इस बात को जान कर क्रोध में फोन पर बरस पड़े थे, ‘‘अब तुम्हारी उम्र मोहमाया के बंधनों से नजात पाने की है या बेसिरपैर के संबंध से बंधने की है? कुछ अध्यात्म की ओर मन लगाओ और अच्छा साहित्य पढ़ो. समय फालतू है तो समाजसेवा की सोचो. रिटायरमैंट के बाद खाली समय बिताने की समस्या अभी से क्यों है तुम्हारे दिमाग में? इस उम्र में स्वयं को बंधन में बांधना एकदम वाहियात बात है.’’

घर वालों का नकारात्मक रवैया शेखर को संध्या ने बता दिया था और फिर बोली थी कि आप अपने लिए किसी अन्य साथी की खोज करिए, मैं ऐसे ही ठीक हूं. संध्या की बेरुखी के बाद भी शेखर ने उसे समझाने का असफल प्रयास किया था. फिर स्वयं भी मौन साध लिया था. उस के फोन आने बंद हो गए थे और दिन गुजरते जा रहे थे. शुरू में तो संध्या ने राहत की सांस ली थी, किंतु 1 हफ्ता बीत गया तो उस की फोन की प्रतीक्षा में बेचैनी बढ़ने लगी थी. मन एक नई उलझन में उलझता जा रहा था कि क्या हो गया? मेरी बेरुखी से ही फोन आने बंद हो गए शायद? या शायद शेखर ने भी अपना बचकाना विचार छोड़ दिया होगा और यही उचित भी है. इस उम्र में किसी के साथ जुड़ने, संग रहने का क्या मतलब?

लेकिन उस का अधीर मन यह भी कहता कि वह स्वयं ही फोन कर ले. किंतु संस्कारी चित्त राजी न होता. एक दिन मन के हाथों हार कर संध्या ने मोबाइल पर शेखर का नंबर पंच कर हलकी सी मिस्ड कौल दे दी थी. ऐसा करने से उस का हृदय जोरों से धड़क उठा था.

उस के मोबाइल पर तुरंत यह संदेश आ गया था, ‘मैं बहुत परेशान हूं, अभी बात नहीं कर पाऊंगा.’

‘क्या हुआ? कैसी परेशानी?’ उस ने सवाल भेजा था पर उस का कोई जवाब नहीं आया था. अगले दिन संध्या यह सोच कर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई थी कि व्यर्थ ही उस ने अपने मन को बेकार के झंझट में फंसाया. किंतु भावनाओं के ठहरे हुए दरिया में अचानक एक पत्थर आ गिरा था. एक दिन मोबाइल की घंटी बजी, तो संध्या ने स्क्रीन पर नजर डाली. उस पर शेखर का नाम था. उस ने कांपते हाथों से मोबाइल हाथों में थामा तो शेखर का अक्स उभर आया था. शेखर ने बताया था कि उन का इकलौता बेटा डाक्टरों और सहायकों की टीम के साथ किसी गांव में फैली महामारी का इलाज करने और बीमारों की तीमारदारी के लिए गया था. लेकिन मरीजों को भलाचंगा करतेकरते वह स्वयं भी रोग की चपेट में आ गया था. इसलिए वह उस के बेहतर इलाज के लिए उसे तुरंत दिल्ली ले कर गया था. वहां बढि़या मैडिकल सेवा की बदौलत उस की सेहत में सुधार होने लगा और अब वह धीरेधीरे पूर्ण स्वस्थ हो रहा है. मैं बहुत परेशान और व्यस्त रहा, क्योंकि बहुत भागदौड़ रही. और कैसी हैं आप? अच्छा फोन बंद करता हूं. डाक्टर के पास जा रहा हूं.

संध्या ने फिर कभी कोशिश नहीं की फोन करने की, न ही दूसरी तरफ से कोई समाचार आया.

एक दिन संध्या औफिस से निकल अपने दुपहिया वाहन पर सवार विचारों में खोई चली जा रही थी कि उस की आंखों के सामने अंधेरा छा गया. उस की एक चीख निकली और वह वाहन समेत सड़क पर जा गिरी. उस के बाद उसे नहीं मालूम कि क्या हुआ. आंखें खुलीं तो उस ने स्वयं को अस्पताल में पाया. कोई भलामानुस उसे अस्पताल ले आया था और फिर घर भी छोड़ गया था.

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