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टे्रन आ चुकी थी. मैं रश्मि और निधि के साथ प्लेटफौर्म पर पहुंचा ही था कि निधि अपनी उंगलियों को छुड़ाती हुई चिल्लाई, ‘‘वे रहे दादादादी,’’ और दौड़ कर दादाजी से लिपट गई.

‘‘जय गुरुदेव, बच्चो,’’ मां ने आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाया.

रश्मि ने बढ़ कर मां के पांव छूते हुए कहा, ‘‘प्रणाम, मांजी.’’

मां ने आंखें तरेरीं, ‘‘जय गुरुदेव बोलो, हम जो संस्कार दे रहे हैं उन पर चलोगे तभी कल्याण होगा.’’

‘‘बातें बाद में हो जाएंगी, पहले आश्रम पहुंचो,’’ पिताजी ने बहस का अंत करने का माध्यम ढूंढ़ा.

आश्रम तक पहुंचने का मार्ग पक्का था, सड़क के दोनों ओर छायादार व घने पेड़पौधे थे. मुख्यद्वार से सटी कई दुकानें थीं. पूजा सामग्री, भांतिभांति के वस्त्र, जड़ीबूटियां और गुरु महाराज के सान्निध्य में बनाई जाने वाली दवाओं, पत्रिकाओं इत्यादि से दुकानें सुसज्जित थीं. मां प्रसन्नचित्त हो कर हमारा मार्गदर्शन कर रही थीं. प्रवेशद्वार को पार करते ही आश्रम की भव्यता ने बरबस आंखें खींच लीं. हम लोग आगे बढ़ते रहे. पंक्तिबद्ध पीत वस्त्रधारी श्रद्धालु भजन गाते हुए जा रहे थे. लंबे भूभाग में कई भवन थे. गुरु भवन, गुरु कृपा भवन, गुरु तीर्थ भवन, गुरु वाणी भवन और उस के बाईं ओर गुरु नियंत्रण और व्यवस्था भवन थे. मैदान के ठीक सामने नवनिर्मित धर्मशालाएं थीं.

हमें सर्वप्रथम ठहरने की व्यवस्था करनी थी, इसलिए हम सभी व्यवस्थापक कक्ष की ओर चल दिए. कुरसी पर दाढ़ी वाला एक अधेड़ बैठा था. रेशमी भगवा कुरतापजामा पहने और रेशमी राम नाम की शौल ओढ़े बड़ा सा चंदन का टीका, बड़ीबड़ी आंखें और चेहरा कुटिलता से भरा प्रतीत हो रहा था. 2 युवतियां भगवा कपड़ों में उस के हाथ दबा रही थीं. एक सिर की मालिश कर रही थी.

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