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रचना...रचना...रचना...यह कैसी रचना थी जिसे वह जितनी बार भी भजता, वह उतनी ही त्वरित गति से हृदय के द्वार पर आ खड़ी होती. हृदय धड़कने लगता, खुमार छाने लगता, दीवानापन बढ़ जाता, वह लड़खड़ाने लगता, जैसे मधुशाला से चल कर आ रहा हो.

इसी तरह हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ उसे पूरी तरह याद हो गई थी, जरूर ऐसे दीवाने को मधुशाला ही थाम सकती है, जिस के कणकण में मधु व्याप्त हो, रसामृत हो, अधरामृत हो, प्रेमी अपने प्रेमी के साथ भावनात्मक आत्मसात हो.

आत्मसात हो कर वह दीनदुनिया में खो जाए. तनमन के बीच कोई फासला न रह जाए. प्रकृति के गूढ़ रहस्य को इतनी आसानी से पा लिया जाए कि प्यार की तलब के आगे सबकुछ खत्म हो जाए, मन भ्रमर बस एक ही पुष्प पर बैठे और उसी में बंद हो जाए. वह अपनी आंखें खोले तो उसे महबूब नजर आए.

अपनी चचेरी बहन चंदा पर प्रेम प्रसंग उजागर न हो इसलिए रचना प्रमोद से बाहर बरगद के पेड़ के नीचे मिलने लगी. वे शंकित नजरों से इधरउधर देखते हुए एकदूसरे में अपने प्यार को तलाश रहे थे. प्रेम भरी नजरों से देख कर अघा नहीं रहे थे. यह प्रेममिलन उन्हें किसी अमूल्य वस्तु से कम नहीं लग रहा था.

उस ने रचना के लिए अपना मनपसंद गिफ्ट खरीद लिया. उसे लग रहा था कि इस से अच्छा कोई और गिफ्ट हो ही नहीं सकता. रंगीन कागज में लिपटा यह गिफ्ट जैसे ही धड़कते दिल से प्रमोद ने रचना को दिया, तो उस की महबूबा भी रोमांच से भर उठी.

‘इसे खोल कर देखूं क्या?’ अपनी बड़ीबड़ी पलकें झपका कर रचना बोली.

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