सतत ही तो थी पापा की वह खुशी. संतान जब गुणवान हो तो किसे प्रसन्नता नहीं होती? रागिनी दीदी को तो न जाने किन हाथों से रचा गया था कि किसी भी गुण से अछूती नहीं हैं. वे देखने में सुंदर, पढ़ाई में निपुण व कलाओं में प्रवीण, क्या घर क्या बाहर, सब जगह ही दीदी की धाक रहती.
पापा अकसर डांस प्रोग्राम करवाते, जिस में रागिनी दीदी स्टार डांसर होती थीं. उन के साथ दीपा दीदी व महल्ले की अन्य लड़कियां भी डांस प्रस्तुत करती थीं. हमारे पड़ोसी डा. दीपक का सब से बड़ा बेटा अमित इस प्रोग्राम में विशेष रुचि लेने लगा था. धीरेधीरे अमित दीदी को स्वयं सुझाव देता. ‘यह रंग तुम पर अधिक सूट नहीं करेगा. कोई सोबर कलर पहनो. इस साड़ी के साथ यह ब्लाउज मैच करेगा. ऊंह, लिपस्टिक ठीक नहीं लगी, जरा और डार्क कलर यूज करो. काजल की रेखा जरा और लंबी होनी चाहिए. बाल ऐसे नहीं, ऐसे बनने चाहिए.’ प्रोग्राम के समय भी अमित की आंखें दीदी के चेहरे पर ही टिकी रहतीं, और यदि दीदी की नजरें कभी अकस्मात उस की नजर से टकरा जातीं तो उन के चेहरे पर हजारों गुलाबों की लाली छा जाती.
यह सब किसी से छिप सकता था भला? बस, मझली दीदी कुछ तो यह ईर्ष्या दीदी के प्रति पाले हुए थीं कि अमित उन की ओर ध्यान न दे कर रागिनी दीदी को ही आकर्षण का प्रमुख केंद्र बनाए रहता है. दूसरे, मां की आंखों में अपनेआप को ऊंचा उठाने का अवसर भी वे कभी अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहती थीं. उन्होंने दीदी के विरुद्ध अम्मा के कान भरने आरंभ कर दिए. मां को एक दिन पापा के कान में कहते सुना था, ‘इस लड़की को आप इतनी छूट दे रहे हैं, फिर वह लड़का भी तो अपनी जातबिरादरी का नहीं है.’
‘अरे, बच्चे हैं, उन के हंसनेखेलने के दिन हैं. हर बात को गलत तरीके से नहीं लेते,’ पापा इतनी लापरवाही से कह रहे थे जैसे उन्होंने कुछ देखा ही न हो. सचमुच पापा की मृत्यु के बाद ही दीदी ने भी अमित के प्रति ऐसा रुख अपनाया था जैसे कि कभी कुछ हुआ ही न हो. एकदम उस से तटस्थ, अमित कभी घर में आता तो दीदी को उस के सामने तक आते नहीं देखा.
दिल में आता उन्हें पकड़ कर झकझोर दूं. ‘क्या हो गया है दीदी, तुम्हें? तुम्हारे अंदर की हंसने, नाचने व गाने वाली रागिनी कहां मर गई है, पापा के साथ ही?’ विश्वास ही नहीं होता था कि यह वही दीदी हैं.
अमित के आने में जरा सी देर हो जाती तो वे बेचैन हो उठतीं. तब वे मुझे प्यार से दुलारतीं, फुसलातीं, ‘सुधी, जा जरा अमित को तो देख क्या कर रहे हैं?’ मैं मुंह मटका कर, नाक चढ़ा कर उन्हें चिढ़ाती, ‘ऊंह, मैं नहीं जाती. कोई जरूरी थोड़े ही है कि अमित डांस देखें.’ ‘देख सुधी, बड़ी अच्छी है न तू, जा चली जा मेरे कहने से. मेरी प्यारी सी, नन्ही सी बहन है न तू.’
वे खुशामद पर उतर आतीं तो मैं अमित के घर दौड़ जाती. वहीं दीदी अमित से तटस्थ रह कर चाचाजी द्वारा भेजे गए लड़कों की तसवीरों को बड़े चाव से परखतीं और अपनी सलाह देतीं. मेरे मस्तिष्क में 2 विपरीत विचारों का संघर्ष चलता रहता. क्या दीदी विवश हो कर ऐसा कर रही हैं या फिर पापा के मरते ही उन्हें इतनी समझ आ गई कि अपना जीवनसाथी चुनने के उचित अवसर पर यदि वे जरा सी भी नादानी दिखा बैठीं तो उन का पूरा जीवन बरबाद हो सकता है? एक दिन उन के हृदय की थाह लेने के लिए मैं कह ही बैठी, ‘दीदी, क्या इन तसवीरों में अमित का चित्र भी ला कर रख दूं?’
उन्होंने अत्यंत संयत मन से मेरे गाल थपथपा दिए थे, ‘सुधी, हंसीखेल अलग वस्तु होती है और जीवनसाथी चुनने का उत्तरदायित्व अलग होता है. अमित अभी मेरा भार वहन करने योग्य नहीं है.’ तब मैं समझ पाई थी कि दीदी ने अपने बोझ से हम सब को मुक्त करने के लिए, उन के बोझ को वहन न कर सकने योग्य अमित की तसवीर को अपने मानसपटल से पोंछ दिया था.
उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि से ऐसे योग्य, स्वस्थ, सुंदर व कमाऊ पति का चुनाव किया था कि सभी ने उन की रुचि की प्रशंसा की थी. दुलहन बनी दीदी जिस समय जीजाजी के साथ अपना जीवनरूपी सफर तय करने को कार में बैठीं, उन के चेहरे पर कहीं भी कोई ऐसा भाव नहीं था, जिस से किंचित मात्र भी प्रकट होता कि वे विवश हो कर उन की दुलहन बनी हैं.
उन के विदा होते ही अम्मा के घुटे निश्वासों को स्वतंत्रता मिल गई थी, ‘‘यही तो अंतर है लड़का लड़की में. बाप की सारी कमाई खर्च करवा कर चली गई. इस की जगह लड़का होता तो कुछ ही वर्षों में सहारे योग्य हो जाता.’’ उधर, दीपा दीदी का पार्ट घर में प्रमुख हो गया. पापा ने वास्तव में ही कहीं गड़बड़ की तो दोनों दीदियों के नाम रखने में. दीपा तो बड़ी दीदी का नाम होना चाहिए था जो आज भी घर के लिए प्रकाशस्तंभ हैं. दीपा दीदी तो अपने नाम का विरोधाभास हैं. उन के मन में तो अंधकार ही रहता है.
रागिनी दीदी घर से क्या गईं, मेरे लिए तो सबकुछ अंधकारमय हो गया था. अम्मा ने तो बचपन से ही मुझे प्यार नहीं दिया. अमर भैया के बाद वे मेरी जगह एक और लड़के की आशा लगाए बैठी थीं. उधर, मझली दीदी उन्हें इसलिए प्यारी थीं कि वे अमर भैया को आसमान से धरती पर हमारे घर में खींच लाई थीं. मझली दीदी समय की बलवान समझी जाती थीं, इसलिए उन्हें दीपा नाम भी दिया गया. अम्मा द्वारा रखा गया मेरा नाम ‘अपशकुनी’ है.