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  1. उफ, इतनी गरमी. गाड़ी को भी आज ही खराब होना था. जेब देखी तो पर्स भी नदारद. सिर्फ 5 रुपए का नोट था. अब तक 3 टैंपो को इसलिए छोड़ चुका था कि सवारियां बाहर तक लटक रही थीं. पर इस बार अपना मन मजबूत किया कि बेटा राजीव, टैंपो में इसी तरह सवार हो कर घर पहुंचना पड़ेगा. सो, इस बार मैं भी बाहर ही लटक गया. थोड़ी देर में खिसकतेखिसकते बैठने की जगह मिल ही गई.

यह क्या, सामने वाली सीट पर बैठी सवारी जानीपहचानी सी लग रही थी. उन दिनों उस के चेहरे पर मृगनयनी सुदंरता के साथ गुलाब की कली से अधखिले होंठों पर हर क्षण मधुर मुसकान फैली रहती थी. लंबे, काले, घुंघराले बाल कभीकभी हवा के साथ गोरे चेहरे को ऐसे ढक लेते थे जैसे काली घटा में छिपा चांद हो. जिस के नाखून भी काबिलेतारीफ हों, उस रूपलावण्य को कैसे भुलाया जा सकता है. यदि मैं कवि होता तो उस पर शृंगार रस की कविता या गजल कह डालता.

राजपूत घराने से संबंध रखने वाली चंद्रमणि 9वीं कक्षा से बीकौम तक मेरे साथ पढ़ी थी. स्कूल स्तर तक तो उस से विशेष बोलचाल नहीं थी, पर कालेज में एक अच्छे दोस्त की भांति बोलचाल के साथसाथ खाली पीरियड में हम कैंटीन में बैठ कर चाय भी पिया करते थे. हमारे विभाग में 40 लड़के व सिर्फ 5 लड़कियां थीं. एक बार बारिश के मौसम में सब ने मिल कर पिकनिक का कार्यक्रम बनाया. 2-3 लैक्चरर भी हमारे साथ थे. 5-7 छात्रों के अतिरिक्त पूरी कक्षा ही थी. तभी एक लड़की बोली कि चंद्रमणि, आज गाना सुनाएगी. इतने में सब ने शोर मचाना शुरू कर दिया. सभी उसे गाने को कहने लगे. एक बार मैं ने भी धीरे से कहा, तब उस ने गाना ‘बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझ को सुखी संसार मिले, मायके की कभी न याद आए ससुराल में इतना प्यार मिले...’ सुनाया. एक तो गाने के बोल, दूसरे उस की दर्दभरी आवाज ने सब की आंखें नम कर दी थीं.

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