‘जो बोलेगा उस का मुंह हम तोड़ेंगे’, यह नारा उन सरकारों का होता है जो तानाशाही होती हैं. यह नारा हर धर्म का होता है जो सत्य, त्याग, धैर्य, संतोष, शांति की बात करता है. यह नारा हर उस पार्टी का होता है जो लोकतंत्र की बात करती है. यह नारा हर खाप का होता है जो अपने समाज को एकजुट रखना चाहती है. यह नारा हर उस बड़े कौर्पोरेट घराने का होता है जो व्यवसाय चलाने के लिए स्वतंत्रता की मांग रातदिन करता है. यह कैसा समाज है जो केवल बोलने से डर जाता है और आम घर ही नहीं, ताकतवर सरकार, धर्म, व्यापार, पार्टी भी डर के मारे कांपने लगते हैं कि कहीं बोलने वाला सच न बोल दे, कहीं पोलपट्टी न खुल जाए. बोलने का हक संविधान ने ही नहीं दिया, यह तो नैसर्गिक है, सदियों का है. तभी तो मानव ने उन्नति की है. बोल कर ही दरिंदों को काबू में लाया गया है. सच बोल कर ही समाज ने अपनी सुरक्षा की है, सभ्यता का विकास किया है. सच का अर्थ ही है जो असल में हो रहा है या हुआ है उसे स्वीकारो, चाहे वह सही था या गलत.

यदि सच बोलने पर पाबंदी लगने लगे तो अदालतें निरर्थक हो जाएंगी. गवाहों से यह उम्मीद क्यों की जाती है कि वे सच बोलें जबकि सरकार, धर्म, समाज, व्यापार और खाप कहते रहते हैं, खबरदार सच बोला तो. सरकारी पाठ्यपुस्तकों में सच की महिमा पढ़ाई जाती है, प्रवचनों में सच का महत्त्व बताया जाता है, स्वर्ग या भगवान के पास जाने का रास्ता बताया जाता है, व्यापार कहते हैं कि सच में उन का माल सब से बढि़या है. फिर सच से डर क्या? लैसली उडविन से डर लगता है कि उस का सच कहीं कालिख न पोत दे. प्रिया पिल्लै  से डर था कि कहीं वह इंगलैंड जा कर भारत के पर्यावरण की दुर्दशा का सच न बोल दे. योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण से डर था कि कहीं वे आम आदमी पार्टी का सच न बोल दें. दलित लेखकों पर मुकदमे दायर करे गए कि उन्होंने सच लिखा. 

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