आम आदमी पार्टी के अंदरूनी झगड़े यह साफ करते हैं कि पार्टी अब परिपक्वता की ओर बढ़ रही है और उस के सदस्यों को राजनीति की पथरीली व दलदली जमीन का एहसास होने लगा है. अब तक पार्टी आदर्शवाद से जुड़ी थी जो न व्यावहारिक होता है न उपयोगी. आदर्श की बातें केवल मंचों पर कही जाती हैं जबकि राजनीति ठोस धरातल पर चलती है, हवा में नहीं. अरविंद केजरीवाल ने यह बात समझ ली थी कि पार्टी को चलाने के लिए व्यावहारिक फैसले लेने पड़ते हैं. उन को साथ ले कर चलना होता है जो किसी स्वार्थ के कारण पार्टी में आए हैं और उन पर अगर कुछ काले छींटे पड़े हों तो चिंता नहीं करनी चाहिए. दूसरी तरफ शांति भूषण, प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव महा संतों की तरह शुद्ध सफेद चोले को महत्त्व दे रहे थे क्योंकि उन के वश का गंदी गलियों में घूमना, साधारण घरों में घुसना, जमीन पर कड़कड़ाती ठंड में सोना, धरने देना आदि नहीं. वे एअरकंडीशंड माहौल के स्टूडियो नेता हैं, उन्हें जमीनी लोगों की बू पसंद नहीं. ये दोनों 2 छोरों पर बैठे लोग थे, सो उन को अलग होना ही था. सिद्धांतों की बात ठीक है पर आम व्यक्ति चाहता है कि कैसे भी हो, उसे सुख मिले. कार्यकर्ता चाहता है कि उस को वोट देने वालों का भला हो. प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव जैसे चाहे जितने भी योग्य लोग हों, उन की वाक्पटुता वोटों को जमा नहीं कर सकती. वोट लेने के लिए तो सब का दिल भी और सब का स्वार्थ भी ध्यान में रखना होगा. आम आदमी पार्टी का प्रयोग उस के ताजा विवाद के बावजूद जिंदा रहेगा क्योंकि यह एक तरफ पुश्तैनी नेतृत्व वाली कांग्रेस और दूसरी तरफ कट्टर विघटनकारी, अंधविश्वासी भारतीय जनता पार्टी का पर्याय है. दोनों मुख्य पार्टियां सब को साथ ले चलने में असमर्थ हैं. आम आदमी पार्टी का स्वरूप पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस व ओडिशा की बीजू जनता दल की तरह है जो किसी खास वाद से नहीं बंधी हैं. दोनों व्यक्तिविशेष पर चल रही हैं. दोनों में तथाकथित आंतरिक लोकतंत्र भी नहीं है पर दोनों सफल हैं.

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