ज्योति सिंह के 16 दिसंबर, 2012 को हुए बलात्कार मामले के बाद मुख्य अपराधी, जो उस समय नाबालिग था, के छूटने पर होहल्ला मचाने का औचित्य नहीं है. हम भावना में बह कर सामूहिक रूप से उसी तरह का वहशीपन दिखाने में लग गए हैं जैसे उस ने चलती बस में युवती का बलात्कार करते हुए दिखाया था, उस ने गुप्तांगों में लोहे का सरिया तक डाल दिया था.

वह नाबालिग अब छूट रहा है तो देश का एक वर्ग कानून के गलत होने का मुद्दा खड़ा करने लगा है कि नाबालिग है तो क्या, है तो अपराधी ही. उसे सजा मिलनी ही चाहिए. जूवेनाइल जस्टिस ऐक्ट कानून गलत नहीं है, सही है. उसे केवल एक अपराधी के लिए बदल कर संसद ने ठीक नहीं किया है. समाज की आत्मा लगता है कुंद हो गई है कि वह बदले की भावना में एक किशोर को सदासदा के लिए सींखचों में बंद देखना चाहता है. वह समझता है कि उस के खुद के मातापिता, बड़े लोग, स्कूलकालेज, नौकरी देने वाले यहां तक कि कोई भी उसे अनुशासन में न रख पाएगा.

यह सोच अपनेआप में एक समाज की आंतरिक कमजोरी की पोल खोलती है. हम मान कर चल रहे हैं कि एक बार का अपराधी हमेशा का अपराधी. तभी बारबार यह मांग की जाती है कि ऐसे अपराधियों को तो फांसी पर चढ़ा देना चाहिए. यह समाज की विकृत विचारधारा है.

ज्योति सिंह, जिसे निर्भया कह कर पुकारा गया क्योंकि बलात्कार के पीडि़त का नाम लेने पर बंदिश है, की मां अब चाहती है कि उस की कुरबानी को गुमनामी में न रखा जाए. सच है कि उस के साथ जो हुआ वह गलत था पर इस का कोई उत्तर जेल के सींखचों के पीछे नहीं है. एक को जेल में बंद कर के 120 करोड़ लोगों को सुरक्षा नहीं दी जा सकती. बलात्कार के अपराधी हर रोज पैदा होते हैं. उसी तरह का वहशीपन सैकड़ों बार दोहराया जाता है. ज्यादातर मामलों में तो अपराधी पकड़ा भी नहीं जाता. जब कोई पकड़ा भी जाता है तो वह छूट भी जाता है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...