महाराष्ट्र के अहमदनगर में स्थित शनि श्ंिगणापुर मंदिर में 400 साल बाद महिलाओं को गर्भगृह में जा कर पूजा करने का हक उच्च न्यायालय ने आखिर दिला दिया. मंदिर के प्रबंधकों को थकहार कर अदालत के फैसले को मानना ही पड़ा. भूमाता ब्रिगेड की तृप्ति देसाई ने आंदोलन छेड़ा था कि औरतों को भी पुरुषों के बराबर का हक है और अदालत ने उन की बात मान ली. बहुत से मंदिरों, मसजिदों में औरतों का प्रवेश मना है. यह अपनेआप में दर्शाता है कि औरत और आदमी के बीच खाई धर्म ने पैदा की है और आदमी इस का फायदा उठाते हैं. सभ्यता से पहले आदमी व औरत लगभग बराबर थे. औरतें कमजोर होती हैं पर बहुत से पुरुषों से ताकतवर भी होती हैं. हर पुरुष हरक्यूलस या किंगकौंग नहीं होता. डेढ़ पसली वाले पतियों की पिटाई करती औरतें अकसर दिख जाती हैं.
यह तो धर्मजनित सामाजिक व्यवस्था है जिस ने औरतों का मन मारा. दुनिया में जहां भी धर्म का बोलबाला है, औरतें कमजोर हैं. जहां धर्म कमजोर है वहां औरतें मजबूत हैं. पहाड़ी क्षेत्रों के कबीलों में मातृसत्ता प्रणाली आज भी जिंदा है क्योंकि वहां धर्म का दबाव कम है. मैदानी इलाकों में धर्मों ने अपनी पैठ बना ली. धर्मों ने पहले औरतों को कमजोर घोषित कर दिया और फिर उन्हें संरक्षण देने, अपनी कमजोरी के कारण पनाह लेने के लिए धर्म की छांव में आने को मजबूर किया. शिंगणापुर मंदिर में घुस कर तृप्ति देसाई ने क्या पा लिया? उस ने उसी मूर्ति पर जल चढ़ाया जो 400 सालों से उन को भेदभाव के कठघरे में खड़ी करती रही है. जो देवी या देवता महिलाओं को उन का प्राकृतिक हक न दे, उसे पूजने से क्या मिलेगा?