मुंबई में हिंदू मालिकों की एक धार्मिक नाम वाली कंपनी का मुसलिम उम्मीदवार का आवेदन यह कह कर अस्वीकार कर देना कि कंपनी मुसलिमों को नहीं रखती, एक रहस्य से परदाभर उठा है. घरों व नौकरियों के मामले धर्मभेद और जातीय भेदभाव हमारे समाज में बुरी तरह रचाबसा है. दलितों, पिछड़ों, ईसाइयों, मुसलमानों सब से भारतीय कंपनियां लगभग ऐसा ही सुलूक करती हैं. इन सब को अगर नौकरियां मिलती हैं तो उन कामों के लिए जिन के लिए उन्हें ऐक्सपर्ट समझा जाता है. यह भेदभाव बोर्ड टांग कर नहीं किया जाता. यह बस, चुपचाप कर लिया जाता है. आवेदक को कह दिया जाता है कि वह उपयुक्त नहीं है. घरों के मामलों में यह मामला गंभीर है. अगर किसी सोसाइटी में विभिन्न धर्मों के नाम वाले बोर्ड दिख जाएं तो इसे अजूबा समझा जाना चाहिए. जहां अलग प्लाटों पर मकान बने होते हैं वहां तो परेशानी नहीं होती पर जहां कंधे से कंधा मिलाना हो वहां जाति और धर्म आड़े आ जाते हैं. अगर कंपनी उदार है व विभिन्न धर्मों और जातियों के लोगों को रख भी ले तो इसे समस्या का अंत नहीं समझा जाना चाहिए. फ्लोर लैवल पर जातीय व धार्मिक छुआछूत चलती रहती है. लोग आपसी गुटों में, दोपहर खाने पर, सामाजिक लेनदेन व व्यवहार में भेदभाव करते रहते हैं. सीधेतौर पर या कामकाज के दौरान अगर कुछ न भी कहा जाए तो बहुत से फैसलों में ये बातें आड़े आ ही जाती हैं.

इस का दोष भेदभाव पैदा करने वाली धार्मिक सोच को देना होगा जो बच्चे के पैदा होते ही उसे दी जानी शुरू कर दी जाती है. दलितों व पिछड़ों ने तो देश पर राज नहीं किया पर मुसलमानों व ईसाइयों ने लंबा राज किया पर फिर भी हमारा समाज भेदभाव बनाए रखने में सफल ही रहा. हां, उस का दुष्परिणाम सामने है. भारत 3 भागों में बंट चुका है. सो, बचे भारत में ऊंचनीच को ले कर विवाद होते रहते हैं. हमारी बहुत सी उत्पादकता केवल ऊंचनीच और छुआछूत के भ्रम को पालने में खर्च होती है. अकारण ही केवल जन्म के कारण बहुतों पर अच्छेबुरे का बिल्ला लगा दिया जाता है. जो काम कर सकते हैं उन से काम नहीं लिया जाता जबकि अपनी बिरादरी का होने पर निकम्मों को नौकरी पर रख लिया जाता है. यह बीमारी हमारे यहां ही हो, ऐसा नहीं है. हम इस पर संतोष कर सकते हैं कि दुनिया के सारे देश व समाज धार्मिक, जातीय या रंग के भेद से बुरी तरह बीमार हैं और अपना सुख खो रहे हैं. सदियों से मानव इसी कारण लड़ाइयों में जान, माल व इज्जत खोता रहा है. आधुनिक शिक्षा, तकनीक, सोच, स्वतंत्रताएं इस खोखली पुरातत्त्ववादी सोच के आगे अभी भी हार रही हैं. मुंबई के युवा को संतोष करना चाहिए कि वह भेदभाव का अकेला शिकार नहीं है. उस से भेदभाव करने वाले दोषी भी इसी तरह के भेदभाव के कहीं न कहीं शिकार होते हैं.

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