नई टैक्नोलौजी का गुणगान बहुत किया जा रहा है पर यह टैक्नोलौजी यदि आम आदमी को छू रही है तो केवल मोबाइल के जरिए. मोबाइल, स्मार्ट मोबाइल, सोशल मीडिया, टैक्ंिस्टग, शेयरिंग, व्हाट्सऐप, सैल्फी, एप्स आदि हाल ही में जबान पर चढे़ हैं और ये पूरी तरह समझ भी नहीं आते कि आउट डेटेड हो जाते हैं. नई टैक्नोलौजी अब नई फिल्मों की रिलीज की तरह होने लगी है, लोग कतारें लगा कर नए स्वैंकी मोबाइल खरीद रहे हैं.

पर क्या यह टैक्नोलौजी क्रांति लोगों का जीवन सुधार रही है? हां, मगर बहुत थोड़ा सा. जिस नई टैक्नोलौजी का गुणगान किया जा रहा है, वह केवल पुरानी टैक्नोलौजी की पहुंच को सुगम बना रही है. वह टैक्नोलौजी खुद कुछ नहीं दे रही.

आप को रेल का टिकट लेना है, घर बैठे मोबाइल से खरीद लें पर रेल तो पुरानी ही टैक्नोलौजी पर चल रही है. रेलवे स्टेशन तक तो पुरानी टैक्नोलौजी पर जाना होगा. प्लेटफौर्म पर चलना तो पुरानी पैरों की टैक्नोलौजी से ही होगा. हो सकता है कि कल आप के प्लेटफौर्म पर पहुंचते ही रेलवे आप के मोबाइल पर बता दे कि बाएं मुड़ें या दाएं, 3 पटरियां पार करें या 4, आप की सीट चौथे डब्बे में है या 5वें में. पर चलना तो पड़ेगा ही. लोहे के पुराने डब्बे में घुसना होगा और पुरानी टैक्नोलौजी से बनी सीट पर बैठना होगा. एअरकंडीशंड है तो वर्षों पुरानी टैक्नोलौजी पर आधारित ही.

फोटो खींचे, शेयर किए, यह है किस काम का? कौन जानना चाहता है कि आप मसूरी में हैं या मैड्रिड में, आप के दूसरे बच्चे ने साल में 5वीं बार बर्थडे मनाया कि 5 साल में पहली बार? इस टैक्नोलौजी पर दुनिया इस कदर फिदा हो गई है, इतना पैसा बरबाद कर रही है कि असल टैक्नोलौजी की खोज धीमी हो गई है.

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