सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी राजनीतिक दबावों में आ कर काम करते हैं, इस का एक चौंकाने वाला रहस्योद्घाटन पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने यह किया कि 10 साल पहले एक जिला न्यायाधीश को तमिलनाडु में पहले उच्च न्यायालय का अतिरिक्त न्यायाधीश बनाया गया और फिर स्थायी कर दिया गया. यह राजनीतिक दबाव, न्यायाधीश काटजू के अनुसार, मनमोहन सिंह सरकार पर द्रविड़ मुनेत्र कषगम पार्टी द्वारा डाला गया था जिस के समर्थन के बिना कांगे्रस सरकार गिर जाती. इस न्यायाधीश ने कभी द्रमुक नेता को जमानत की छूट दी थी और इसलिए द्रमुक उस का पक्ष ले रही थी.

न्यायाधीशों की नियुक्तियों में तरफदारी होती है, यह न कोई अजूबा है न नई बात. न्यायाधीश उसी समाज से बनते हैं जिस से अफसर व नेता बनते हैं और इस शक्ति के खेल में वही जीतता है जिस के संपर्क हों, जिस ने दूसरों पर एहसान किए हुए हों, जिस ने किसी को मुसीबत के दिनों में बचाया हो, न नेतागीरी और न अफसरगीरी इस तरह के एहसानों के बिना चल सकती है और न ही न्यायाधीशों की नियुक्तियां. निचली अदालतों में भी नियुक्ति को ले कर सवाल अदालतों के गलियारों में गूंजते रहते हैं.

इस देश की छोडि़ए, दुनिया के तकरीबन सभी देशों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में शासकों का हाथ होता है. हां, जैसे ही नियुक्त करने वाला शासक सत्ता से बाहर होता है, न्यायाधीश एहसानों का गाउन उतार फेंकता है और स्वतंत्र न्याय करने लगता है. न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने यह कह कर चौंका तो दिया कि उच्च न्यायालय में नियुक्ति राजनीतिक दबाव के कारण हुई पर क्या अदालतों में पहुंचने वाले, न्याय की दुहाई देने वालों को हानि हुई? सिर्फ इसलिए कि खुफिया जांच खराब थी, किसी को न्यायाधीश पद के लिए अयोग्य मानना गलत है क्योंकि इस से तो इंटैलीजैंस ब्यूरो सर्वशक्तिमान बन जाएगा जो किसी के भी खिलाफ बिना अपील बिना दलील के रिपोर्ट दे कर उस के कैरियर को समाप्त कर सकता है, जैसा कि हाल में वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रह्मण्यम के साथ हुआ.

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