पहले गौमाता और फिर वंदेमातरम, योग, सूर्य नमस्कार और अब भारत माता के नाम पर जो आंधीतूफान देश में चलाया जा रहा है, इस सब का मतलब एक ही है, किसी तरह फिर से पौराणिक जमाने को देश पर थोप दिया जाए, जिस में पैदाइश से ही सबकुछ तय हो कि कौन समाज में किस जगह होगा. ऊंची जातियों वाले राज करें, बीच वाले सेवा करें और सब से नीचे वाले अछूत जानवरों की तरह रहें.

पिछड़ी जातियां और अछूत (अब के दलित) सदियों से खाने में मांस भी खाते रहे हैं, क्योंकि उन्हें जीने के लिए जो मिल जाता खाते थे. ब्राह्मणों और उन की देखादेखी वैश्यों ने मांस खाने पर थोड़ी पाबंदी लगाई थी, पर कभी भी कहीं भी इसे पूरी तरह अपनाया नहीं गया. जैन धर्म ने मांसमच्छी और जीव को न खाने की वकालत की थी, पर आज भी जैन बहुत थोड़े से हैं.

मांस न खाने के पीछे एक बड़ी वजह यह थी कि ये लोग खुद पशु नहीं पालते थे. मांस खाना है तो आखिर तक पशु की देखभाल करनी होगी. उस को खिलाना होगा, उस की बीमारी की चिंता करनी होगी. पशुओं को अनाज की तरह न कोठरों में भरा जा सकता है, न जमीन में दबा कर छिपा कर रखा जा सकता है. मीट न खाने वालों को अनाज दूसरों की मेहनत से मिलता था और जहां से मिला उसे जमा किया जा सकता है. मांस के खिलाफ हल्ला इसलिए किया जा रहा है कि साबित किया जा सके कि जो मीट खाते हैं वे नीच हैं, अछूत हैं, अधर्मी हैं. जो अनाज खाते हैं, वे ऊंचे हैं, उन के कोठार भरे हैं. वे दान में बोरे के बोरे अनाज ले सकते हैं. जो लोग बराबरी की मांग कर रहे हैं, उन्हें नीचा दिखाने के लिए यह नाटकबाजी की जा रही है, ताकि कहा जा सके कि सत्ता की चाबियां तो खास लोगों के हाथों में हैं. हां, अगर वे भी मीट खा लें तो सब ठीक है, क्योंकि वे जन्म से ऊंचे हैं.

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