राजनीति में भी उसी तरह रातदिन मेहनत की जरूरत है जैसे किसी किराने की दुकान को सफल बनाने में होती है. राजनीति जागीरदारी नहीं होती जिस में पिछले पुरखों की कमाई पर मौजमस्ती या सिर्फ आराम किया जा सके.
शिवसेना के टूटने की भारी वजह में से एक है कि उद्धव ठाकरे का आलसीपन, जो न ज्यादा दौरों पर गए और शायद अपने मंत्रालय के दफ्तर में तो कभी गए ही नहीं. वे पिता की तरह आरामकुरसी पर बैठ कर राज करना चाह रहे थे. उन्हें एकनाथ शिंदे ने जता दिया कि यह जनता को तो दूर, विधायकों और सांसदों को संभालने के लिए भी काफी नहीं है. नतीजा सामने है.
मायावती भी एक ऐसा ही उदाहरण हैं जिन्होंने न केवल बहुजन समाज पार्टी को मरने दिया बल्कि दलितों के हकों के रास्तों को बेच खाया भी. वहां अब ऊंची जातियों की फर्राटेदार बड़ी गाडिय़ां दौड़ रही हैं.
कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, समाजवादी पार्टी, प्रजा समाजवादी पार्टी, अकाली दल और कुछ हद तक कांग्रेस का भी यही हाल है कि उन के आज के नए नेता सोच रहे हैं कि क्योंकि उन का इतिहास और नाम बड़ा है, इसलिए लोग अपनेआप उन की ओर आकर्षित होंगे.
आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, जगन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी, वाई एस रेड्डी की तेलगांना प्रजा समिति अगर जिंदा हैं और लगातार राज में हैं तो इसलिए कि इन के नेता हर समय जनता के बीच मौजूद दिखते हैं.
भारतीय जनता पार्टी की सफलता के पीछे भी यही कहानी है. पिछले 70-80 सालों से पौराणिक परंपरा को फिर से लागू करने के लिए लाखों पंडोंपुजारियों और उन के भक्तों व ऊंची जातियों की वर्णव्यवस्था के समर्थकों ने रातदिन मेहनत की. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सुबह ही शाखाएं लगाना अपनेआप में आसान नहीं है जिस के लिए लाखों लोगों को घरों से निकाल कर पास के बाग में जमा किया जाता है. राज आने पर भी यह काम बंद नहीं हुआ. हां, कम जरूर हो गया है क्योंकि जो लोग त्याग करने के लिए जमा किए जाते रहे हैं आज मंदिरों, आश्रमों, स्कूलों, पार्टी दफ्तरों, कांवड़ यात्राओं, रामनवमी यात्राओं, तीर्थयात्राओं, गौरक्षक दलों में राज करने का मजा ले रहे हैं.
राहुल गांधी कुछ दिन कुछ सक्रिय होते हैं और फिर कहीं छुट्टी पर चले जाते हैं. सोनिया, प्रियंका और राहुल कांग्रेस की जनता के बीच रहने की परंपरा को कुछ हद तक कायम रख रहे हैं पर पार्टी के दूसरे नेता घरों में बैठ कर सत्तासुख भोगने के आदी हो चुके हैं.
भारतीय जनता पार्टी रातदिन सोनिया और राहुल के पीछे इसीलिए पड़ी रहती है कि वह समझती है कि इन्होंने कैसे 1970 से सत्ता खो कर 1981 में पा ली, 1900 में खो कर 1991 में पा ली, 1996 में खो कर 2004 में फिर छीन ली.
आज भी राहुत गांधी को घेरने, सोनिया को ईडी में उलझाए रखने की वजह यह है कि भाजपाई सत्ताधारी इन से डरते हैं कि कहीं ये सरकार से नाराज जनता को अपने झंडे के नीचे जमा न कर लें.
भारतीय जनता पार्टी का हाल अब उस बाबरी मसजिद का सा है जो ऊंची खड़ी तो है पर उस के टिकने का भरोसा नहीं. केवल 2 जनों की मनमरजी से चल रही पार्टी में नए नेता पैदा नहीं हो रहे. ये दोनों जनता के बीच नहीं जा रहे पर इन के प्यादे लाखों की गिनती में इन का काम कर रहे हैं. जैसे बाबरी मसजिद मुसलिम भक्तों की सुरक्षा का भाव न बचा सकी, लगता है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने धर्मभक्तों की आस्था को आर्थिक संकटों पूरी तरह निकाल नहीं पाएगी. भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में बहुत फर्क नहीं है जिन के नेताओं के दर्शन टीवी या मंच पर होते हैं, अपनों के बीच नहीं.