लेखक-सुरेश चंद्र रोहरा

प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के कैबिनेट विस्तार की जिस तरह छीछालेदर हो रही है वह अभूतपूर्व कही जा सकती है. आखिर असल वजह क्या है... नरेंद्र दामोदरदास मोदी के बहुप्रतीक्षित कैबिनेट विस्तार की जो आलोचना की जा रही वह अपनेआप में ऐतिहासिक बात है. उत्तर प्रदेश के भावी चुनाव को केंद्र में रख किया गया कैबिनेट का विस्तार यह बता रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा कितने बड़े सत्तापिपासु हैं.

अपनी छवि चमकाने के लिए कैबिनेट का कुछ इस तरह विस्तार किया गया है कि आने वाले समय में होने वाले उत्तर प्रदेश और गुजरात विधानसभाओं के चुनावों में पार्टी फिर सत्तासीन हो सके. मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में पहली बार मंत्रिपरिषद का फेरबदल और विस्तार किया गया है जिस में सभी सीटों को भर लिया गया है. ध्यान रहे यह वही सरकार है जो जनता को ‘मिनिमम गवर्मैंट, मैक्सिमम गवर्नैस’ का फार्मूला रटवा रही थी. 7 जुलाई को हुए इस फेरबदल में 43 मंत्रियों को शपथ दिलाई गई.

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इन में 15 कैबिनेट मंत्री और 28 राज्यमंत्री थे. सवाल यह है कि जब कोरोना देश को खोखला कर रहा है तो ऐसे समय में कैबिनेट बदलाव के क्या माने हैं? क्या यह सरकार की गिरती छवि और कुशासन को ढकने का जरिया है? क्या सरकार की नाकामियों का ठीकरा कुछ प्यादों पर फोड़ कर राजा का महल बचाए जाने की कोशिश है या यह सीधेसीधे मोदी के धूमिल और कमजोर होते व्यक्तित्व की निशानी है? संभावना दोनों ही बातों की बराबरी से है.

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