उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी शुरू हो गई है. बिहार की तर्ज पर वहां भी महागठबंधन बनाने की कोशिशें हो रही हैं. नतीजा रोचक हो सकता है कि मात्र 20-22 प्रतिशत मत पाने वाली पार्टी बहुमत से सीटें पा जाए.

प्रस्तावित महागठबंधन में अजित सिंह की राष्ट्रीय लोकदल और कांगे्रस व कई छोटी पार्टियां तो शामिल हो चुकी हैं. कठिनाई समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी की है. दोनों अकेले कितना मतप्रतिशत पा पाती हैं, इस के बारे में अभी नहीं कहा जा सकता. दोनों को 20-22 प्रतिशत मत जुटाने तो मुश्किल भी नहीं होंगे. उन्हें जीत भी मिल सकती है अगर बाकी वोट महागठबंधन और भारतीय जनता पार्टी में बंट जाएं.

पहले उम्मीद थी कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी में मेलमिलाप हो जाएगा लेकिन हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या ने भाजपा और दलित के बीच खाई चौड़ी कर दी है. मायावती का भगवे झंडे के नीचे शरण लेना, अपनी आत्महत्या करने जैसा होगा. समाजवादी पार्टी के तेवर चुनाव के मौके पर ढीले होंगे, अब इस की उम्मीद है. सत्तारूढ़ पार्टियां अकसर चुनावों से पहले झुकने वाले समझौते नहीं करतीं पर  मुजफ्फरनगर में 2 सीटें हारने के बाद शायद उस को अपना अक्खड़पन कम करना होगा और कांग्रेस या महागठबंधन से समझौता करना होगा.

यह पक्का है कि चुनाव में मुद्दा सिर्फ सत्ता में आने का होगा. किसी भी पार्टी का राज्य के बारे में कोई खास कार्यक्रम नहीं है. उत्तर प्रदेश पहले की तरह बिखराव और बेकारी का गढ़ बना रहेगा. सत्ता में आ कर कुछ लोग लाभ उठाएंगे. प्रदेश में कोई चमचमाता सूरज निकलने लगेगा, इस की उम्मीद नहीं करनी चाहिए क्योंकि चारों पक्षों में किसी का कोई एजेंडा है ही नहीं. जबकि उत्तर प्रदेश का विकास ही देश की गरीबी मिटाने की चाबी है. जो चुनावी उठापटक हो रही है वह नेताओं के अपने भविष्य के लिए है, जनता के लिए नहीं. इसलिए जो भीड़ नेताओं के सामने दिखेगी, वह किराए के लोगों की होगी जिन्हें भक्त लोग हांक कर लाएंगे. कोई भी जीते, इस राज्य का अगली सरकार के दौरान भी कुछ होने वाला नहीं, यह पक्का है.

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