नई अर्थव्यवस्था में एक भारी बदलाव दिख रहा है और वह है बिचौलिए व्यापारियों की भारी कमी. हाल ही में जो नई कंपनियां चमकी हैं और जिन्हें स्टार्टअप कहा जा रहा है, वे असल में केवल दूसरों के बने सामान को ग्राहकों तक पहुंचा रही हैं, अपना बहुत कम बना रही हैं. पहले यह काम अमेरिका में वालमार्ट, मेसीज, भारत में विजय सेल्स, इंगलैंड में हैरड्स जैसी कंपनियां स्टोर बना कर करती थीं. इस तरह की स्टार्ट्सअप ने कम्यूनिकेशन की नई इंटरनैट तकनीक का इस्तेमाल कर के कंप्यूटर अथवा मोबाइल पर फोटो दिखा कर घरों में भेज कर ई कौमर्स की एक नई विधा शुरू कर डाली, जिस में स्टोरों और दुकानदारों के भारी शोरूमों, होलसेल व्यापार, मंडियों की जरूरत कम से कम हो रही है और उत्पादक व ग्राहक के बीच केवल एक स्टार्टअप ई कौमर्स कंपनी दिख रही है.

अभी यह तकनीक और व्यापार बहुत ही छोटे आकार का है पर जिस तरह से बढ़ रहा है और जिस तरह सेवाएं बढ़ रही हैं जिन में टैक्सी, मरम्मत वाले व कूरियर वाले जोड़े जा रहे हैं, उस से लगता है कि व्यापार और दुकानदारी का तौरतरीका पूरी तरह बदल जाएगा. अब इस नए ई कौमर्स से संभव है कि ग्राहक कहीं भी हो, आसपास के ही किसी सप्लायर से उसे सामान पहुंचाया जा सकता है. न सिर्फ सामान, बल्कि सेवाएं भी. डाक्टर या नर्स की, खाना पकाने वाले की, ब्यूटी ऐक्सपर्ट की, टैक्स कंसलटैंट की. किसी के भी उपयोग की चीजें उसे आसानी से पहुंचाई जा सकती हैं. दुकानें अब बाजारों से निकल कर मोबाइलों में घुस गई हैं और खरीदारी का भी तरीका बदलता जा रहा है.

यह आमूलचूल बदलाव एक बड़े परिवर्तन की शुरुआत है. इस से बाजार बंद हो जाएंगे. लोगों को घरों से ही कमाने के अवसर मिलने लगेंगे. उत्पादक वैसा सामान बनाएंगे जैसा ग्राहक चाहते हैं. ग्राहकों की राय अब दुकानदारों तक न रह कर उत्पादकों तक आसानी से पहुंच जाएगी. सूदखोरी, जमाखोरी न के बराबर हो जाएगी. लाखों छोटेबड़े व्यापारी बेकार हो जाएंगे और आय सौफ्टवेयर मैनेज करने वालों के हाथों तक सीमित रह जाएगी.

उत्पादक भी चंद ई कौमर्स वाली कंपनियों के बंधक बन जाएंगे जो अलीबाबा, अमेजन, फ्लिपकार्ट की शर्तों को मानने को मजबूर हो जाएंगे. दुकानदार तो मोबाइल स्क्रीन के पीछे छिपे रह जाएंगे और धीरेधीरे उत्पादक का नाम भी गायब हो जाएगा, क्योंकि ई कौमर्स कंपनियां अपनी साख पर ही सामान बेचेंगी और जिस में ज्यादा मुनाफा होगा वही बेचेंगी. यह सब अच्छा होगा या बुरा अभी कहना आसान नहीं है पर डर है कि कहीं विशाल दैत्याकारी कंपनियां न खड़ी हो जाएं, जो छोटे स्टार्टअपों को हड़प करती रहें और ग्राहकों को वही खरीदना पड़े जो वे बेचना चाहती हैं. कहीं ग्राहक, उत्पादक, फाइनैंसर, प्रचारक और यहां तक कि कर जमा करने वाले भी इन स्क्रीनों पर मौजूद कंपनियों के अनचाहे गुलाम न बन जाएं. यह जौर्ज औरवैल के बिग ब्रदर से भी ज्यादा भयावह हो सकता है.

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