आरक्षण के खिलाफ पहले शूद्र मानी जाने वाली, पर पिछले 2 सौ सालों से पैसे वाली हो गई जातियों ने एकजुट होना शुरू कर दिया है. हरियाणा में जाट, राजस्थान में गुर्जर, आंध्र प्रदेश में कापू और अब महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण के खिलाफ खड़े होने लगे हैं. उन से नीचे के शूद्र, जो कि मंडल आयोग की पिछड़ी जातियों में आते हैं और दलित अब डरे हैं कि कहीं आरक्षण को खत्म ही न कर दिया जाए या इन पैसे वाली पढ़ीलिखी जातियों को वर्णव्यवस्था के हिसाब से मंडल वाली जातियां न मान लिया जाए. दोनों हालात में आज जिन्हें आरक्षण मिल रहा है, वे नौकरियों की रेस में पिछड़ जाएंगे.
सरकारी नौकरियां बहुत नहीं हैं, पर जो भी हैं उन पर यदि नीची जाति के समझे जाने वाले बैठने लगते हैं तो न केवल सवर्ण ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को बुरा लगता है, बल्कि उन जातियों को भी बुरा लगता है, जो सदियों से ऊपर की 3 सवर्ण जातियों से नीची मानी जाती थीं और बराबर न बैठ सकती थीं, न साथ खाना खा सकती थीं.
2016 में हम इस तरह का अलगाव झेल रहे हैं, यह ज्यादा अफसोस की बात है. 150 साल की पढ़ाई के मौकों के बाद भी केवल इसलिए कुछ, और कुछ नहीं जनसंख्या के 50-60 प्रतिशत तो हैं, इसलिए नीचे देखे जाएं कि उन के मातापिता की जाति कुछ थी, गलत है. आदमी की पहचान उस की अपनी काबिलीयत पर होनी चाहिए, न कि उस पेट से जुड़ी जिस से पैदा हुआ है.
उस युग में जब सरोगेट मदर आम होने लगी हैं, किसी की जाति नहीं, उस का काम पूछा जाना चाहिए, उसे क्या आता है, पूछा जाना चाहिए. यहां हम अभी भी बाप का नाम और जाति को ले कर लट्ठ लिए खड़े हैं. कभी राजस्थान में रेल रोको हो जाता है, तो कभी हरियाणा में दंगे हो जाते हैं. कभी गुजरात में तलवारें निकल आती हैं, तो कभी महाराष्ट्र में मौन जुलूस निकलने लगते हैं. इन सब में काम की बात नहीं, मुफ्त में कुछ पैसा पाने की बात होती है.
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