हम क्या खाएं, क्या पहनें, क्या सुनें, क्या देखें, क्या पढ़ें, क्या यह फैसला देश के हिस्सों में फैले इकलौते लोग कर सकते हैं? हमारे देश में यही हो रहा है. अदालतों ने अपने दरवाजे इस तरह खोल रखे हैं कि कोई भी, किसी को भी जानबूझ कर परेशान करने और उस के काम करने, बोलने, लिखने की आजादी को अदालतों में घसीट सकता है और वर्षों तक उस से चप्पलें घिसवा सकता है. लोकतंत्र के नाम पर देश में अदालती हथियार से एक हठधर्मी तंत्र का सूत्रपात हो गया है जिस में कभी व्यापारियों, कभी अभिनेताओं, कभी नेताओं और कभी लेखकों को घसीट लिया जाता है कि उन के काम से किसी एक जने को तकलीफ हुई है. खेद की बात है कि मीडिया बजाय जानेमाने नाम की प्रतिष्ठा व अधिकारों की रक्षा करने के उस गुमनाम निठल्ले व्यक्ति की आड़ में चटपटी खबर को उछालने लगता है और अदालतें बिना सोचेविचारे अपना दखल दे देती हैं.

मैगी का मामला पहला नहीं है जिस में मैगी को दंड पहले दे दिया गया है मुकदमा बाद में चलेगा और सुबूत बाद में पेश होंगे. बाराबंकी, उत्तर प्रदेश की एक सरकारी प्रयोगशाला में मार्च 2014 में मैगी के नमूने जांचे गए और जांचने वाले लैब टैक्नीशियन ने उस में एमएसजी (मोनोसोडियम ग्लूटामेट) का स्तर ज्यादा पाया. डिपार्टमैंट ने नैस्ले के विरुद्ध मामला दर्ज कर दिया. ठीक है, मामला दर्ज कर दिया तो अदालती आदेश आने दें, जांच होने दें कि बाराबंकी की प्रयोगशाला ने सही जांच की या नहीं. लेकिन एकएक कर के राज्य सरकारों ने मैगी को सूली पर पहले ही चढ़ा डाला, बैन कर दिया. अगर यह जांच गलत पाई गई तो उस लैब टैक्नीशियन का क्या होगा? कुछ नहीं. वह मजे में सरकारी नौकरी करता रहेगा. यही नहीं उस जांच को आधार बना कर उत्तर प्रदेश के एक वकील ने अमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित और प्रीति जिंटा पर भी मुकदमा दायर कर दिया और 20-20 साल तक न्याय न करने वाली अदालत ने तुरतफुरत मामला ले लिया. अगर बाद में सारा मामला बेबुनियाद निकला तो उस अदने से वकील का क्या होगा? कुछ नहीं. लोकतंत्र लोकलाइसैंस नहीं हो सकता किसी जानेमाने सफल व्यापारी, नेता, अभिनेता या ब्रैंड को फालतू में कठघरे में खड़ा करने का. सरकारी जांच प्रयोगशाला का हक हो सकता है कि वह जांचे, पर जब तक मामला पूरी तरह साबित न हो जाए, न ब्रैंड को बैन करा जा सकता है, न किसी को अदालत में घसीटा जा सकता है. जनहित के नाम पर व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को कुचलना बंदरों के हाथों में उस्तरा देना है जो लोकतंत्र की गरदन ही काट सकते हैं. इस सारे मामले में मैगी तो प्रतीक है. वर्षों से देशभर में इस तरह के फालतू के मुकदमे दायर होते रहते हैं. दुख इस बात का नहीं कि सिरफिरे मामले दायर करते हैं, दुख इस बात का है कि काम के बोझ से दबी, वर्षों तक न्याय न देने वाली अदालतें इस तरह के विध्वंसक मामलों में क्या संज्ञान ले कर एक तरह से सूली पर चढ़ा देती हैं और निठल्ला खीखी करता रह जाता है?45

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