सारा देश सरकारी जमीन पर कब्जे से परेशान है. रेल, सेना, नगरनिकायों, राज्य सरकारों, केंद्र सरकार, सरकारी उद्योगों आदि की जमीनों पर अवैध कब्जे हैं और ज्यादातर जगहों में कब्जा करने वालों ने बिजली, पानी, सड़क, सीवर तक की सुविधाएं जुटा ली हैं. इस का रोना रोने वाले सरकारी अफसर, इसी के साथ अपनी जमीन पर किए गए अवैध निर्माणों की बात जोड़ देते हैं ताकि उन की नाकामयाबी को छिपाया जा सके.
इस कब्जे के पीछे असल वजह भूमि अधिग्रहण कानून है जिस के अंतर्गत पिछले 110 सालों के दौरान सरकार ने गरीब किसानों से भूमि छीन कर अपने हाथों में ले तो ली पर संभाल न पाई. अब यदि लंबे समय तक जमीन खाली पड़ी रहे तो जरूरत होने पर उस जमीन पर कब्जा तो होगा ही. जनसंख्या बढ़ने से जमीन पर मकान, दुकान, उद्योग बनाने की जो जरूरत हुई, सरकारें उसे पूरा नहीं कर पाईं. जमीन का सरकार का हथियाना जारी रहा जो 2013 के बाद तब बंद हुआ जब सोनिया गांधी के प्रयासों से यूपीए सरकार द्वारा कानून में संशोधन किया गया.
सरकारी जमीन के बारे में एक आकलन है कि दिल्ली में इतनी सरकारी जमीन पर कब्जा है कि एक पूरा शहर बस सके. परेशानी यह है कि वहां दशकों से बसे लोगों को हटाया कैसे जाए? वे इतने गरीब हैं कि कहीं जमीन खरीद नहीं सकते, साथ ही वे इतने कमजोर भी नहीं कि कब्जा छुड़वाने आई सरकारी मशीन को रोक न सकें.
असल में सरकार के पास केवल जंगलों, पहाड़ों, बागों के लिए जमीन होनी चाहिए. सरकार को बाकी खाली जमीन वापस कर देनी चाहिए. अगर पुराने मालिक न मिल रहे हों तो उसे उस जमीन पर कब्जा करने वालों को दोगुने दामों में बेच देनी चाहिए. कागजों पर अपनी मिल्कीयत दिखाने से क्या लाभ जब उस पर न मकान बना सको, न किराया वसूल सको. फाइलों में जमीन रखने की जगह सरकार उसे लोगों के हाथों में दे दे, चाहे कुछ मंदिरों, मसजिदों को जाए, कुछ नेताओं के पास, कुछ गुंडों के पास और बाकी वाकई गरीबों के पास.