कश्मीर का मामला तो उलझता जा रहा है. गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने 2 दिन लगाए तो भी कोई हल नजर नहीं आ रहा. घाटी लगातार कर्फ्यू में है और हर रोज युवा मौतों की खबरें आ रही हैं. एक पूर्व मंत्री ने तो यहां तक कह दिया है कि कहीं कश्मीर की स्थिति का इराक और सीरिया में फैले इसलामिक स्टेट संगठन के नेता लाभ न उठा लें. पाकिस्तान चाहे या न चाहे, इसलामिक स्टेट के पास आज इस तरह की ताकत है कि वह सरहदों की परवा किए बिना, जहां चाहे वार कर सकता है. कश्मीर 1947 से ही देश के लिए एक चुनौती रहा है. आशा थी कि नरेंद्र मोदी अपने आभामंडल के सहारे इसलामी अलगाववादियों को मना लेंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उन्होंने प्रोग्रैसिव डैमोक्रेटिक पार्टी से मिल कर वहां सरकार तो बना ली पर उस का असर कुछ ज्यादा नहीं हुआ. आम कश्मीरी बहुतकुछ चाहता है और बाकी देश उसे देना नहीं चाहता, न दे सकता है और न ही देना चाहिए.
कश्मीर को बंदूकों के सहारे कब तक काबू में रखेंगे, इस बारे में कहना आसान नहीं है पर मणिपुर, नगालैंड, बोडोलैंड के भारतीय उदाहरण और तमिल टाइगर्स का श्रीलंकाई उदाहरण साफ करता है कि देश से अलग होने वालों के लिए रास्ता आसान नहीं है. 1947 के बाद दुनिया के बहुत थोड़े से ही देशों का जाति, रंग, धर्म, कबीलाई, भाषा आदि कारणों से विभाजन हुआ है. हां, जहां जबरन एक देश ने दूसरे पर कब्जा किया था, वहां आजादियां मिली हैं. वैसे भी, कश्मीरियों के लिए अलगाव कोई हल नहीं है. यह सपना है जो निरर्थक है. अलग होने पर कोई देश ज्यादा तरक्की नहीं करता. भारत में जो राज्य अलग हुए उन्हें उस का क्या लाभ मिला? 2 मुख्यमंत्री हो गए, 2 सचिवालय हो गए, छोटे विधानमंडल बन गए, बस. स्वतंत्र देश को बहुत मस्याओं का सामना करना पड़ता है. नेपाल व भूटान कोई विशेष खुश हों, ऐसा नहीं लगता. हां, उन की राजधानियां अच्छी लगती हैं पर आम जनता त्रस्त थी, त्रस्त है.