आजकल हमारे शासक संविधान के दिए गए अधिकारों की बात करते हुए उत्तरदायित्व और कर्तव्यों की बात भी करने लगते हैं. 1945 से 1950 के बीच जो संविधान तैयार किया गया वह इस आधार पर किया गया कि देश के शासक नेता वे ही लोग होंगे जो देश की जनता की सेवा करने के लिए चुनावी राजनीति से चुने जाएंगे. पर हुआ कुछ और ही. संविधान के बनने के तुरंत बाद उन्हीं लोगों को, जिन्होंने संविधान जनता का अधिकार दिए थे, ये अधिकार अपनी कुरसी पर लगे बांटे जाने लगे.

गनीमत यह है कि संविधान में बारबार संशोधन किए गए और हर संशोधन में कोई न कोई अधिकार छीना गया लेकिन फिर भी अभी इतने अधिकार आमजन के पास हैं कि देश के गृहमंत्री अमित शाह को याद दिलाना पड़ रहा है कि संवैधानिक अधिकारों के साथ संवैधानिक कर्तव्य भी पूरे संविधान और संविधान के अंतर्गत बने कानूनों में बिखरे हैं.

उन्होंने अपने भाषण में शासकों के कर्तव्यों की बात नहीं की, शासकों की जवाबदेही की बात नहीं की. यही नहीं, गलत निर्णय लेने पर शासकों को दंड मिलने की बात भी उन्होंने नहीं की क्योंकि 1947 के बाद से ही संवैधानिक अधिकार छीनने की जो आदत पड़ी है वही नरेंद्र मोदी की मौजूदा सरकार कर भी रही है.

जनता को जो संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं, वे उस को सरकार से कुछ दिलाते नहीं हैं, वे सरकार को जनता के प्रति कुछ बुरा करने से रोकते मात्र हैं. संविधान के तहत जनता के पास न रोजीरोटी, न चिकित्सा, न शिक्षा, न मनोरंजन, न सम्मान का जीवन, न साफ शहरों में रहने, न अपराधरहित जीवन जीने का हक है. संविधान तो सिर्फ सरकार को जनता से ये सब चीजें, जो जनता खुद जुटा रही है, छीनने से रोकता है वह भी आधाअधूरा. हर संवैधानिक अधिकार को पाने के लिए नागरिक को वर्षों सडक़ों पर, विधानमंडलों में, अदालतों में, अखबारों में, टीवी में लड़ाई लडऩी पड़ती है.

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