देश में जहां न्याय ढूंढ़ने जाओ वहां से अन्याय मिलता है, इस का उदाहरण बिहार की एक निचली अदालत से मिलता भी है. 1997 में प्रदर्शित एक फिल्म ‘छोटे सरकार’ के एक गाने ‘…बदले में यूपी बिहार लेले…’ पर किसी यंग लायर्स एसोसिएशन ने 1997 में पाकुड़ जैसी छोटी जगह पर बिहार का अपमान करने का मुकदमा दर्ज कराया. मामला अभिनेता गोविंदा, अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी, निर्देशक विमल कुमार, गायक उदित नारायण, गायिका अलका याज्ञनिक आदि के खिलाफ था. होना तो यह था कि इस मूर्खतापूर्ण मामले को न्यायाधीश फटकार लगाने के साथ बंद कर देते पर शायद वकीलों के दबाव में मामला दर्ज कर लिया और सम्मन जारी कर दिए. फिर वारंट जारी हुए. प्रतिवादियों ने वकील भेजा और पटना हाईकोर्ट में मामला खारिज करने को कहा होगा. न जाने क्यों 2001 में हाईकोर्ट ने खारिज करने की प्रार्थना खारिज कर दी, पर फाइल खो गई.

फाइल घूमते घुमाते आखिरकार पाकुड़ न्यायालय में 2016 में पहुंची और फिर उन सब को मुकदमे में हाजिर होने के गैर जमानती वारंट जारी हुए. यह अदालती मजाक नहीं है, तो क्या है? अमेरिका और यूरोप भी इसी तरह अदालती आतंक के शिकार हैं जहां कोई भी, कहीं भी किसी के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकता है. अभिनेत्री खुशबू पर तमिलनाडु में एकसाथ 22 अदालतों में मुकदमे उन की कौमार्य पर राय प्रकट करने पर दायर कर दिए गए थे और सब में उन्हें अदालतों में पेश होने का हुक्म सुनाया गया. 2005 में दर्ज किए गए सभी मुकदमों को 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय ने इसे विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता माना था.

पर पाकुड़ जैसे छोटे जिले के न्यायाधीश क्या नहीं समझ सकते थे कि ‘बिहार लेले’ शब्दों से न बिहार अपमानित होता है, न शिकायती मामले से अदालतों का गौरव बढ़ता है. दरअसल, इस तरह से अदालतें खुद जोरजबरदस्ती करने वाली बन जाती हैं. अदालत की प्रतिष्ठा तभी बनी रह सकती है जब छोटी अदालत का पीठाधीश समझबूझ कर निर्णय लेगा. वकीलों के झुंड ने कहा और मुकदमा बिना यह सोचे सीधे दर्ज हो जाए कि जानीमानी हस्तियों को परेशानी होगी, यह असल में न्यायपालिका का अपमान है.

होना तो यह चाहिए कि बेबुनियाद शिकायत करने वालों को अदालतें, छोटी हों या बड़ी, फटकार ही नहीं लगाएं, आर्थिक जुर्माना भी लगाएं, खासतौर पर छोटे आपराधिक मामलों में. अदालतों की गरिमा सर्वोच्च न्यायालय तो रखेगी, पर छोटी अदालत का भी कुछ फर्ज है. बिहार लेले के मामले का छुटपन साफ दिख रहा है. अदालत को विवेक से काम लेना चाहिए था.

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