ईरान से परमाणु करार करा कर अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने वह काम कर लिया है जिस की इस समय कल्पना नहीं की जा सकती थी कि जब पूरा पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका धार्मिक दंगों में जल रहा हो और ईरान एक तरफ अपने शिया समर्थकों को बचाने में लगा हो तो दूसरी ओर सुन्नी कट्टर वहशीपन पर उतरे हुए हों. जब बारूद बरस रहा हो तो शांति की बात करवा पाना और वाश्ंिगटन व तेहरान से दूर स्विट्जरलैंड में बैठ कर ऐसा करार करा लेना, जिस में ईरान ने परमाणु बम न बनाने की बात मान ली हो, एक आश्चर्य है. परमाणु नियंत्रण पर परमाणु हथियारों से लैस देश ही जोर दे रहे हैं, यह विडंबना है. पर जीवन ऐसा ही चलता है. जिस के हाथ में ताकत होती है वह दूसरों को हथियार छोड़ने को कहता है. पुलिस प्रतिबंध लगाती रहती है कि आम आदमी के पास हथियार न हों जबकि खुद अकारण गोलियां बरसाए तो कोई हर्ज नहीं. अमेरिकी संविधान ही ऐसा है जो आम नागरिकों को हथियार रखने का हक देता है ताकि सरकार सर्वशक्तिमान न बन सके. उसी अमेरिका ने ईरान को मनाफुसला व धमका कर परमाणु बम न बनाने को राजी किया है.
ईरान नतांज और अरक में अपने परमाणु संयंत्रों में हथियार बनाने योग्य एनरिच्ड प्लूटोनियम न बनाने को तैयार हो गया है और इंटरनैशनल एटौमिक एजेंसी द्वारा जांच भी होने देगा. बदले में ईरान पर लगी आर्थिक रोक हटेगी. यूरोपीय देशों व अमेरिका द्वारा व्यापार न करने की नीति से ईरान को बहुत संकटों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि न तो उस का तेल बिक पा रहा है, न उसे रोजमर्रा की चीजें मिल पा रही हैं जिन का उत्पादन दूसरे देशों में हो रहा है. बड़ी बात यह है कि ईरान का यह समझौता उस के आतंकवाद से दूर रहने का वादा लगता है. ईरान सीरिया व यमन में शियाओं को समर्थन दे रहा है और वह सुन्नी मुसलिमों की बढ़त को रोकने के लिए तत्पर है. आज इसलामी आतंक मुख्यतया सुन्नी मुसलिमों के हाथों में है. शियाओं को अमेरिकी समर्थन मिलने से वे भी थोड़ा कमजोर होंगे.यह समझौता यह भी साबित करता है कि देशों के विवाद हथियारों से नहीं, मेजों पर कागजों से सुलझाए जाते हैं. हथियारों से विजय हमेशा थोड़े समय के लिए मिलती है जबकि कागजी टैंक हमेशा के लिए जंग जीतते हैं.
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