क्या नरेंद्र मोदी को इस बात के लिए धन्यवाद दिया जाए कि उन्होंने स्वच्छता अभियान का इतना अधिक प्रचार किया कि उत्तर प्रदेश में नगर पालिकाओं के लिए सफाई कर्मचारियों की नौकरी के लिए एमबीए, एमए और बीए पास लड़के लड़कियों ने आवेदन कर डाले और प्रैक्टिकल के लिए वे गंदे पानी के सीवर में उतर गए.
उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य की सभी नगर पालिकाओं को सफाई कर्मचारियों की भरती की अनुमति दी है और 20 हजार लोगों की भरती होनी है. इस के लिए 2 लाख आवेदन मिले हैं. यह मालूम करना तो मुश्किल है कि अभी ये 2 लाख अनुसूचित जनजातियों के हैं या नहीं पर इन में सैकड़ों अच्छेखासे पढ़ेलिखे हैं यानी पढ़ाईलिखाई के बाद बेकारी इतनी है और सरकारी नौकरी का मोह इतना है कि सफाई कर्मचारी की नौकरी के लिए भी हजारों मील चल कर लोग पहुंचे हैं, क्योंकि आवेदन करने वाले का उस शहर का वासी होना जरूरी नहीं है. सफाई कर्मचारी बनना बुरा नहीं है. बुरा है सफाई कर्मचारियों के साथ बरताव. नरेंद्र मोदी ने सजीधजी झाड़ू से कूड़ा इधर से उधर कर हल्ला तो कर दिया पर यह नौटंकी ज्यादा साबित हुआ, चरित्र परिवर्तन नहीं, क्योंकि कहीं से भी सूटेडबूटेड नरेंद्र मोदी, उन की पार्टी के हजारों नेताओं, अफसरों, दूसरे दलों या आम जनता ने सफाई को जीवन का अंग नहीं बनाया. सफाई करने वाला आज भी गंदा है. जाति से बाहर शादी की बातें तो बहुत होती हैं पर अछूत कन्याओं से शादी कहां हो रही है. जो बात 50 साल पहले की फिल्म में कही गई थी वह वहीं दफन हो गई.
स्कूलकालेजों में अनुसूचित जनजाति वालों को जगह मिली है पर ज्यादातर उन्हें अपने अबोध साथियों से भी एक अलगाव मिलता है, क्योंकि ऊंचीनीची जाति की भावना घरघर में कूट कर भरी है और बच्चों को भी कह दिया जाता है कि किसे दोस्त बनाएं, किसे नहीं. अगर सैकड़ों आवेदन एमए, एमबीए, बीए पास युवकयुवतियों के सफाई कर्मचारी के लिए आए हैं तो यह दर्शाता है कि देश में गरीबी, भुखमरी की क्या हालात है कि आरक्षण की सीढ़ी से पढ़ाई करने के बाद भी इन युवकों को पक्की संतोषजनक नौकरी नहीं मिल रही. ये कोई व्यवसाय नहीं कर पा रहे. ये समाज में घुल नहीं पा रहे. पढ़ाई और नरेंद्र मोदी के अभियान ने जाति की दीवारें तोड़ी नहीं मजबूत की हैं.
सफाई कर्मचारियों की जाति नहीं होनी चाहिए पर दुनिया भर में रंग, मूल देश, जाति, भाषा आदि के नाम पर सफाई का कार्य परंपरागत बना दिया जाता है और उस में एक स्तर से दूसरे स्तर पर उभरना कठिन हो जाता है. भारत तो जातिगत वर्णव्यवस्था में मीलों गहरा गढ़ा है जहां निचली जातियों को जरा सा भी उठने की कोशिश करने पर धकेल कर फिर नीचे फेंक दिया जाता है. उन के लिए एक ही क्षेत्र है, अलग रह कर सफाई करना और इसीलिए पढ़लिख कर भी उन्हें नीचा समझा जाने वाला काम अपनाना पड़ा है. पक्की सरकारी नौकरी एक मोह है पर जहां जाति का बिल्ला लगा हो वहां लालच है तो सिर्फ जिंदगी जीने का.