नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार की विदेशी नीति के परखच्चे अगर किसी ने उड़ाए हैं तो वे यूक्रेन में फंसे छात्र रहे. यूक्रेन में करीब 20 हजार छात्र मैडिकल की पढ़ाई कर रहे थे और वे बहुत साधारण घरों से आते हैं जो बड़ी मुश्किल से पैसा जुटा कर डिग्री पाने के लिए ठंडे, बेगाने देश में मांबाप से दूर रह कर पढ़ रहे थे. उम्मीद थी कि जिस बेवकूफी से भारत सरकार ने यूक्रेन पर रूसी हमले में रूस का साथ दिया है, बदले में रूस इन छात्रों को सुरक्षित रखने की गारंटी देगा.
ऐसा कुछ नहीं हुआ. राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक शब्द भी इन छात्रों के लिए नहीं बोला. उधर, यूक्रेन के लोगों ने इन छात्रों के साथ कोई खास दुर्व्यवहार तो, उन के देश के खिलाफ भारत के रूस को नंगे समर्थन के बावजूद, नहीं किया पर जब खुद उन की जान के लाले पड़े हों तो वे दूसरों की सहायता कैसे करते.
देश का सोशल मीडिया भारत सरकार के निकम्मेपन और उस के अपने गाल थपथपाने की आदत की थूथू से भर गया. प्रचार मंत्री को डमरू बजाने और उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनाने की लगी थी, यूक्रेन में 19 से 25 साल के अनुभवहीन भारतीय छात्रों, जिन की जेब में पैसे न के बराबर होते हैं, की सहायता की चिंता नहीं थी. मंदिरों के नाम पर करोड़ों नहीं, अरबों रुपए वसूलने और खर्च करने वाली सरकार ने इन छात्रों के साथ वैसा ही बरताव किया जैसा मार्च 2020 में लगाए गए लौकडाउन में फंसे दिहाड़ी मजदूरों से किया यानी अपनी देखभाल खुद करो.
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