रंग, जाति, भाषा, धर्म का भेदभाव हमारी रगों में कूटकूट कर भरा हुआ है. एक तरफ देश के कई इलाकों में काले अफ्रीका से आ कर पढ़ने वालों या छोटामोटा काम करने वालों को बेबात में मारा जा रहा है, तो दूसरी तरफ वैसा ही पीले उत्तरपूर्व से आए लड़केलड़कियों के साथ किया जा रहा है. इस देश का रिवाज है, जो अपना नहीं वह तो दुश्मन है. हमेशा से. छुआछूत उसी की देन है या यह छुआछूत की देन है, जो हिंदू धर्म का पहला हुक्म है. दिल्ली में कांगो से आए 5 साल से यहां रह रहे अफ्रीकी मसुंडा किटाडा ओलिवर को पीटपीट कर महज आटोरिकशा में बैठने पर हुए झगड़े में मार डाला. अफसोस की बात है कि मारने वाले मुसलिम युवा हैं, जो खुद रोते रहते हैं कि भारत में अब उन के साथ पराए, दुश्मन सा बरताव होता है.
यह परायापन हमारे देश के हर महल्ले, हर गली, हर गांव में दिख जाएगा. यहां अगर कोई किसी को अपना मानता है, तो सिर्फ अपने गोत्र या जाति वाले को. चूंकि हर जगह एक ही जाति या गोत्र वाले बहुत मिल जाते हैं, एक आवाज लगते ही मारपीट के लिए भीड़ तैयार हो जाती है जो बिना कारण जाने ही मारने लग जाती है. यह देश असल में बेवकूफों का ही है. चाहे अपने गाल कितने ही बजा लें हम हैं बवालों में रहने वाले. एक ही देवी की पूजा करने वाले भी दसियों गुट मारपीट पर उतारू रहते हैं. तेरामेरा, विदेशी, बाहरी, काला, पीला, गोरा, भेंगा, लंगड़ा न जाने किसकिस तरह से हम अपनों को बांट लेते हैं. बांट ही नहीं लेते, जो अपना नहीं वह दुश्मन बन जाता है. हमारा धर्म, रीतिरिवाज हमें अपने अलावा सब को जालिम बनाने में लगे रहते हैं. औरतों को तो यहां परायों से भी ज्यादा पराया माना जाता है और जो मारपीट रोजाना घरों के दरवाजों के पीछे होती है उस की वजह भी वही है, जिस से अफ्रीकी को मारा गया था.
सरकार ने स्कूलों और दफ्तरों में साथ उठनेबैठने की आदत डालनी चाही, पर उस का लाभ सिर्फ सतही रहा. जहां अपनों का साथ मिला वैसे डरे रहने वाले भी खूंख्वार हो जाते हैं. सरकार के कामकाज पर धर्म, राजनीतिक पार्टियां, खाप, पंडों की जंत्रियां पानी फेर देती हैं और अपनेपराए का फर्क ठूंसठूंस कर भर देती हैं.देश में आने वाले विदेशी यहां आमतौर पर डरेसहमे रहते हैं, क्योंकि यहां तो देशवासी को ही कभी भरोसा नहीं होता. लुटेरे हर जगह होते हैं, पर जिस तरह नसनस में लूट, मारपीट, परायापन यहां है, वह और कहीं शायद नहीं. तभी तो हम सदियों तक मुट्ठीभर बाहरी लोगों के गुलाम रहे हैं और आज भी ललित मोदी व विजय माल्या जैसों को वापस लाने की हिम्मत नहीं कर पाते.