यूक्रेन रूस संघर्ष में भारतीय विचारकों की कमी नहीं है जो इस मामले को रूसी चश्मे से देखने की कोशिश कर रहे है क्योंकि अमेरिका के जो बाइडन और कमला हैरिस द्वारा दूरी बनाए रखने के कारण नरेंद्र मोदी को रूस का दामन पकडऩा पड़ा है और संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों में भी तठस्थ रहना पड़ा और रूप से प्रतिबंधों के बाद भी व्यापार चालू रखा गया.
भारत की स्थिति कुछ अलग है. अपनी विशालता के कारण हमारा सकल उत्पादन तो ज्यादा है पर प्रति व्यक्ति आय और दूसरे पैमानों पर हम बेहद गएगुजरे देश हैं जो हर चीज के लिए बाहरी देशों पर निर्भर है, जहां तक कि साधारण से मेडिकल और इंजीनियङ्क्षरग की शिक्षा तक के लिए. हम बातें बनाने में तेज हैं और प्रवचन देते भी हैं पर उन्हें अमल में लाएं यह जरूरी नहीं है और इसीलिए रस्मी तौर पर भारत को रूस यूक्रेन विवाद में हस्तक्षेप के बाद उसे हल करने में भारत का हाथ नहीं रहा.
मीडियम और विचारक रूस का समर्थन न कर सकें पर पश्चिम में दोषी ठहराने की कोशिश जम कर कर रहे हैं. यूक्रेन ने जो जमकर अपने से कहीं विशाल और उन्नत रूस से मुकाबला किया है तो पश्चिमी देशों से निरंतर आई सैनिक सामग्री के बल पर. यूक्रेनी सैनिकों और नागरिकों ने इन हथियारों को चलाना समझना और अधपढ़े रूसी सैनिकों की खूब धुनाई की है. रूस ने काफी बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया पर फिर तब तक पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का असर होने लगा और वहां से हथियार पहुंचने लगे. रूसी टैंक, हवाई जहाज, तोपों की अमेरिकी व यूरोपीय हथियारों ने विफल कर दिया. भारत इन्हीं हथियारों को रूस से मुंहमांगे दामों पर खरीदता रहा है और उन की कमाई खुल गई है.
भारत की कूटनीति पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समय से ही ढुलमुल रही है. भारत ने पहले रूस का दामन थामा और सोवियत संघ के विखराब के बाद हम कुछ बदले पर इतना नहीं कि हम दूसरे उन्नत लोकतांत्रिक देशों के साथ बैठ सकें और उन से सीख सकें. हम कम्युनिस्ट देशों के पिछलग्गू रहे और इसी वजह से हमारा व्यापार और उपयोग बढ़ नहीं पाया.
अब फिर हम गलती कर रहे है और प्रधानमंत्री के ईशारे पर हमलावर रूस का समर्थन कर रहे हैं. रूस का हमला अमेरिका के विनयनाम, अफगानिस्तान और इराक के हमलों से अलग है. रूस यूक्रेन को अपने देश में मिलाना चाहता है जबकि अमेरिकी कभी भी वियमनाम, अफगानिस्तान या इराक के अमेरिका की कालोनी नहीं बनाना चाहता था. वहां मुद्दा कम्युनिज्म बनाम लोकतंत्र का था. भारत जैसे लोकतांत्रिक देश को पश्चिमी देशों का साथ देना चाहिए क्योंकि हम ने पाकिस्तान के 2 टुकड़े बांग्लादेश में लोकतंत्र को स्थापित करने के लिए किए थे, बांग्लादेश को भारत में मिलाने के लिए नहीं.
हमारे मीडिया और विचारकों की आंखों पर लगा चश्मा चढ़ा है. वह देश की जनता के लिए हानिकारण है.