जैसे भारतीय जनता पार्टी की सरकार वाले कर्नाटक को कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के दौरान उमड़ी भीड़ का मुकाबला करने के लिए नौकरियों में एससी, एसटी या दलित व आदिवासी कोटा नौकरियों में बढ़ाने का फैसला लेना पड़ा है, वैसे ही हर घर को लेना पड़ेगा. वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था हिंदू संस्कृति का मूल है. कुंडली, संस्कारों, पूजापाठ के नियमों, अपने आराध्य देवीदेवताओं को बांट कर हरेक हिंदू के लिए संस्कृति के नाम पर क्या खाओगे, किस को दोस्त बनाओगे, किस से शादी करोगे आदि तय कर दिया गया है.
जब तक यह विभाजन दूर नहीं होगा, राजनीतिक तौर पर सब होते हुए भी देश में दरारें पड़ी रहेंगी और उस युवा पीढ़ी के लिए चुनौती बनती रहेंगी जिसे अब हर जाति, उपजाति, धर्म के लोगों के साथ उठनाबैठना जरूरी होता जा रहा है.
पहले लोग गांवों में, महल्लों में बंटे होते थे और एक जाति के लोगों का दूसरी जाति के लोगों से न ज्यादा मेलजोल होता था, न संघर्ष होता था. अब स्कूल, कालेज, सिनेमाहौल, मौल, नौकरियों, बसों, रेलों, हवाई जहाजों, कार्यालयों में बराबर वाला कौन होगा या होगी, इस का फैसला जाति और धर्म को देख कर नहीं किया जा सकता.
कर्नाटक की भाजपा सरकार ने सरकारी कोटा एससी के लिए 15 फीसदी से बढ़ा कर 17 फीसदी करने का फैसला किया और एसटी 3 फीसदी से 4 फीसदी. कोई बड़ी बात नहीं कि कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा जैसेजैसे और राज्यों में पहुंचेगी और अगर उसे वही भीड़ मिली जो तमिलनाडू, केरल व कनार्टक में मिली तो दूसरी भाजपा सरकारों को अपने यहां बदलाव करने पड़ें. भले यह भारतीय संस्कृति के खिलाफ हो पर अब तो आवश्यक हो ही गया है कि हर परिवार तैयार रहे कि कब उस के यहां दूसरे क्षेत्र, जाति, धर्म की घुसपैठ हो जाए.
आज का युवा पहले चेहरा और स्वभाव देखता है और दोस्ती बनाता है, जातिधर्म बाद में पता चलता है. बहुत घरों में अभी भी इतनी मानसिक दीवारें बनी हैं कि वहां पूजापाठियों के इशारों पर बच्चों पर तरहतरह की जातीय बंदिशें लगाई जाती हैं. ये युवाओं को कुंठित करती हैं. हमारे पुराणों में भी अंतर्जातीय प्रेम या विवाहों की लंबी लाइनें लगी हैं. शूर्पणखा ने प्रेमनिवेदन किया था जबकि वह जानतीसमझती थी कि वह किसी और जाति की है. एक राजा की बेटी मूर्ख नहीं होती. भीम ने हिडिंबा से विवाह किया था जो उसे मारने आई थी और दूसरी जाति की थी. मत्स्यगंधा से शांतनु ने विवाह किया था.
आज तो मेलजोल और ज्यादा हो रहा है. ऊंचे 50 मंजिले, 500-1000 घरों के टौवरों वाले कौंपलैक्स में आप अपने पड़ोसी को चुन नहीं सकते और लिफ्ट में मुंह फेर कर नहीं खड़े हो सकते. हर जाति की लडक़ी, हर जाति का लडक़ा एकसा लगता है. सब बराबर से पढ़ रहे हैं, सब समझदार हैं.
जाति का मोह तो छोडऩा पड़ेगा चाहे धर्म के दुकानदार कितना ही जोर लगाएं. धर्म के ठेकेदारों की हजार कोशिशों के मद्देनजर समाज में सदियों से पड़ी बड़ीबड़ी खाइयां दूर करनी होंगी ही. यह सामाजिक आवश्यकता है, धार्मिक हृदय परिवर्तन नहीं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मोहन भागवत को भी अपनी सोच बदलनी पड़ रही है. उन्हें मंदिरों और सरकारी दफ्तरों की सत्ता चाहिए तो मन बदलना होगा. घरों में पारिवारिक सौहार्द बनाए रखना है तो जाति का सवाल मन से मिटाना होगा क्योंकि न जाने किस दिन दबेपांव यह सवाल घर के ड्राइंगरूम से होता हुआ बैडरूम व किचन तक पहुंच जाए.