जीवन का रंग लाल खून का ही नहीं होता पर अफसोस की बात है कि आज की प्रौढ़ व वृद्ध पीढ़ी कल की पीढ़ी को लाल रंग से रंगी दुनिया देने की तैयारी में है. हम प्रकृति के साथ भरपूर खिलवाड़ कर चुके हैं. दुनिया का आकाश जहरीले लाल धुएं से भरने लगा है. गरमी बढ़ने लगी है. नई तकनीक से जीवन सुखी हुआ है पर हवा का रंग लाल होने लगा है. इतना ही नहीं सोच भी लाल हो गई है. सारी दुनिया दहशत में जी रही है कि न जाने कब, कहां खून बिखरा दिख जाए. कश्मीर के उड़ी में 22 भारतीय जवानों का खून बहा और उन के परिवार बरबाद हो गए, क्योंकि पाकिस्तान से 4 आतंकवादी भारत में घुस आए पर यहां तो गलीकूचों में रोज खून बह रहा है. कभी गौमांस को ले कर, कभी दलितों को ले कर, कभी कावेरी के जल विवाद पर तो कभी माओवादियों द्वारा हिंसा फैला कर. यों कहना गलत नहीं होगा कि गुस्सा लोगों के सिर चढ़ कर बोलने लगा है.

समुद्र पार तो हालात और खराब हैं. पश्चिम एशिया में धूंधूं कर लाल धुआं फैल रहा है. लोगों को सदियों पुराने अपने शहर छोड़ कर भिखारियों की तरह दूसरे शहरों में खून बहा कर भागना पड़ रहा है. यह खून कितने ही देशों में बहे जा रहा है. जहां नहीं है या कम है, उन्हें भी अब डर लग रहा है कि कहीं कोई आतंकवादी उन के किसी शहर पर हमला न कर दे.

क्या यही हमारे प्रौढ़ व वृद्ध आज के किशोरों को दे कर जाना चाहते हैं? दुनिया को इंटरनैट और सैटेलाइट्स से युवाओं ने एक किया. किशोरों ने ही सोचा कि कौन सी तकनीक का कैसे इस्तेमाल किया जाए कि जमीन पर खींची लकीरों को ही बेमतलब का कर दिया जाए. उन्होंने व्हाट्सऐप और फेसबुक का ईजाद कर लिया. ईमेल से कहीं भी सस्ते में किसी से भी बातचीत कर सकते हैं. स्काइप से दूरदराज बैठे लोग पास आ गए.

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