केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किए गए फिल्म सैंसर बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी ने फिल्मों के शुद्धीकरण का अभियान छेड़ दिया है. हिंदी फिल्मों को 19वीं सदी में ले जाने के उन के इतने ज्यादा अरमान हैं कि उन्होंने बाकायदा एक सूची जारी कर दी कि फिल्मों में कौन से शब्द बोले जा सकते हैं और कौन से नहीं. उन्होंने कहा तो नहीं पर यह अघोषित बात है कि ये शब्द, उन के अनुसार, भारतीय संस्कृति के खिलाफ हैं और उन्हें फिल्मों में स्वीकार करने से हिंदुत्व की नैतिकता को खतरा है. फिल्में साफसुथरी हों, यह कामना हर कोई कर सकता है पर इस का फैसला कि कौन सी फिल्म साफसुथरी है और कौन सी नहीं, यह कौन तय करेगा--सैंसर बोर्ड, जिस के पास भगवाई प्रमाणपत्र है या आम जनता?

फिल्मों और साहित्य में गालियां न हों, यह मांग करना ठीक है पर जब समाज में ये बुरी तरह इस्तेमाल हो रही हों तो दोषी समाज है या फिल्म व साहित्य. भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों में हजारों प्रवचनकारी हैं, मंदिरमठों के संचालक हैं, लेखक हैं, स्कूलकालेज चलाने वाले हैं. क्या वे अपने उपदेशों से उस भाषा को मूलतया समाप्त नहीं कर सकते जिस की वे आलोचना कर रहे हैं? रही बात नैतिकता की, तो उस के लिए हमें अपने ग्रंथ खंगालने चाहिए. और अगर आधुनिक तथाकथित फिल्मी सड़ीगली नैतिकता के मानदंडों से भी गं्रथों में देवीदेवताओं के कारनामों के बारे में जानें तो सारे मंदिरों पर सैंसर जैसी कैंचियां चल जाएंगी और सारी पौराणिक फिल्मों व धारावाहिकों को बंद कर देना पड़ेगा. ये तथाकथित आदर्श ग्रंथों में उन गुणों से भरे हैं जो एक आम आदमी में होते हैं जिन में छल, कपट, धोखा, अपशब्द आदि सब शामिल हैं.

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