पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद भारतीय जनता पार्टी के पास अपने कैडर को बिखरने से बचाने के लिए कोई तरीका नहीं बचा तो उस ने अपने नेताओंकार्यकर्ताओं को पिटने का नाटक कर हल्ला करना शुरू कर दिया है. यह अपना मुंह छिपाने का उस का एक हथकंडा है. अकसर घरों की धर्मनिष्ठ बूढ़ी महिलाएं अपनी बहुओं के खिलाफ इसी हथकंडे का इस्तेमाल करती हैं जब सत्ता उन के (सास) के हाथ से निकल कर बहू के हाथ में जा पहुंचती है.
भारतीय जनता पार्टी बंगाल में हालिया हुए विधानसभा चुनाव के दौरान ही अपने को जीता हुआ सम झ रही थी और इसलिए उस ने तृणमूल कांग्रेस के वर्करों की खूब पिटाई की. तब चुनाव आयोग के निर्देश पर चल रही पुलिस के हाथ बंधे हुए थे. यह देश को पता है कि मौजूदा चुनाव आयोग केंद्र की भगवा सरकार का पक्ष लेता है, हालांकि उसे निष्पक्ष होना चाहिए. अमित शाह और चुनाव आयोग ने बंगाल पुलिस की पूरी कमान भाजपा समर्थक अफसरों को सौंप रखी थी. ऐसा तकरीबन हर चुनाव में होता है कि पुलिस अफसरों का इस्तेमाल केंद्र की सत्ता पर काबिज पार्टी अपने हित के लिए करती है. बंगाल में चुनाव आयोग का फायदा उठा कर केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा सरकार ने अपने चहेते अफसर अहम ड्यूटी पर लगाए थे और उन के इशारों पर भाजपा कार्यकर्ताओं का उत्पात छिपा रहा.
अब भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता वैसा ही शोर मचा रहे हैं जैसे पौराणिक कथाओं के देवता और ऋषिमुनि राक्षसों के आक्रमण से घबरा कर कभी विष्णु की शरण में गुहार लगाते थे. वैसे ही ममता बनर्जी के खिलाफ कभी गवर्नर, कभी केंद्रीय गृह मंत्री तो कभी गोदी मीडिया पर गुहार लगाई जा रही है. उन्हें मालूम है कि होने वाला कुछ नहीं है. बस, भाजपा के कैडर को लगेगा कि हां, कुछ हो रहा है.भाजपा का कैडर आजकल उस भीगी बिल्ली की तरह है जो अपने को शेर सम झने लगा था और गली पर राज जमा रहा था. पश्चिम बंगाल में ही नहीं, सभी राज्यों में भाजपा की हालत पतली हो रही है. उत्तर प्रदेश के पंचायती चुनावों में वह बुरी तरह फ्लौप हुई है. कोविड की लड़ाई में नरेंद्र मोदी को देश में ही नहीं, दुनियाभर में थूथू मिल रही है. जो बेचारगी आज भाजपा कैडर में छा गईर् है, वह अद्भुत है क्योंकि इस की कल्पना ही नहीं की गई थी.
पश्चिम बंगाल में हिंसा चुनाव से पहले होती तो लाभ था. जीतने वालों को पीटने की फुरसत नहीं होती. वे तो अपनी जमीन को मजबूत करने में लग जाते हैं. जो पार्टी भाजपा के दिग्गजों को हरा कर आई है, वह ऐसी बेवकूफ नहीं हो सकती कि नाहक खुद को बदनाम करे, वह भी एक अधमरे जमीन पर पड़े घोड़े को चाबुक मार कर.
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मीडिया पर निर्भरता
पिछले 6-7 वर्षों के दौरान देश का मीडिया कुछ घोषित, कुछ अघोषित और कुछ घोषित सैंसरशिप में जिया है. इस का नतीजा अब भारतीय जनता पार्टी देख रही है. पश्चिम बंगाल और दूसरे 2 राज्यों में भाजपा की करारी हार की वजह यही है कि मीडिया, जो डरा कर नियंत्रित किया गया, व गोदी मीडिया (जो खुदबखुद मोदीभक्त है), स्थिति की सही तसवीर पेश नहीं कर रहा था. अब जब कोविड और चुनाव नतीजों की मार पड़ी है तो पता चला है कि शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह छिपाने से सच छिप तो जाता है मगर झूठ सच में नहीं बदलता.
मीडिया पर कंट्रोल करना अब सरकार पर भारी पड़ रहा है. उच्च न्यायालय व सर्वोत्तम न्यायालय, जो आमतौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नकेल डाल रहे थे, अचानक मुखर हो उठे हैं. मद्रास उच्च न्यायालय ने तो यहां तक कह दिया कि खुले चुनाव करा कर चुनाव आयोग ने मर्डर किए हैं क्योंकि कोविड महामारी की दूसरी लहर को सीधेसीधे चुनाव आयोग के कई फेजों में चुनाव कराने और फैसले को प्रधानमंत्री की रैलियों व अमित शाह के रोड शोओं से जोड़ा जा रहा है.
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चुनाव आयोग रोता झींकता सर्वोच्च न्यायालय गया, पर काफी दिन बाद सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को कोई राहत देने से इनकार कर दिया. मद्रास उच्च न्यायालय ने ये शब्द एक सुनवाई के दौरान कहे थे, कोईर् फैसला नहीं दिया था. चुनाव आयोग चाहता था कि मीडिया इस बात की चर्चा न करे. पर सर्वोच्च न्यायालय ने जनता के जानने और आलोचना करने के हक को बुनियादी हक माना है. जो गोदी मीडिया सोच रहा है कि वह भक्ति कर के देश का भला कर रहा है, खुद भुलावे में है. यह सही है कि प्रचार के बल पर और लगातार झूठ पर झूठ बोल कर हिंदूमुसलिम खाई चौड़ी कर दी गई है और आम हिंदू देश की समस्याओं के लिए मुसलमानों को कहीं न कहीं दोषी मानता ही है.
यह पट्टी हिंदू धर्म के दुकानदार पढ़ा रहे हैं और उन्होंने अपने भक्तों व समर्थकों में पैसे वालों की बड़ी भीड़ जमा कर रखी है. ये दुकानदार हैं जो तीर्थ, पूजा, प्रवचन, आयुर्वेद, वास्तु, घरों में मंदिरों, गलियों में मंदिरों, शहर के मंदिरों में खूब कमाई करते हैं. यही नहीं, ईश्वरभक्ति का झूठ इतनी बार दोहराया जाता है कि तर्क पेश करने वाले को हिंदू धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला करार दे दिया जाता है.मीडिया की स्वतंत्रता उस की तार्किकता में है जो तथ्यों पर आधारित हो. जो मीडिया तथ्यों को तोड़मरोड़ कर जातिगत श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए मोदी के मुखौटे का इस्तेमाल कर रहा हो, उसे विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जरूरत ही नहीं. वह तो भक्ति प्रचार की स्वतंत्रता को ही स्वतंत्रता मानता है, उस के दिमाग पर ताला पड़ा हुआ है.
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सर्वोच्च न्यायालय ने कोविड की सुनामी से मजबूत तंत्र के हिले ढीले बंधनों का लाभ उठाया है और कई साल बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात की है. वैचारिक स्वतंत्रता ही असल में भौतिक सुखों का मार्ग है. बंधीबंधाई लकीर पर चलने वाले तो कमंडल में पूरा घर लिए घूमते हैं और घरघर भीख मांग कर गुजारा करते हैं.
परिवार का मैडिकल फंड
कोविड संकट ने लाखों घरों की जमापूंजी समाप्त कर दी है. जो एक बार बीमार पड़ गया, उस की जमापूंजी का बड़ा हिस्सा डाक्टरों, अस्पतालों को गया सम झो. देश में डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोग इस महामारी की चपेट में आ चुके हैं. उन सब के घर वालों की संपत्ति का बड़ा हिस्सा कोविड के इलाज में चला गया है. सरकारें, हालांकि, बड़ीबड़ी बातें करती रही हैं पर सचाई यह है कि लोगों को जमापूंजी गंवानी पड़ी है.कोविड के चलते लोगों की गंवाई भारी रकम की भरपाई होगी, यह दिख नहीं रहा क्योंकि कारोबार चौपट हो गए, बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और देश की भी आर्थिक हालत ठीक नहीं है. आंकड़ेबाजी के बावजूद लग रहा है कि कोरोना वायरस के बारबार के आक्रमण सरकार को तो खोखला नहीं कर रहे पर आमजन के घरों को पूरी तरह खोखला कर देंगे.
सरकार के आंकड़े तो कहते हैं कि वे अधिक कर वसूल कर जमा कर रहे हैं, पर यह संभव है कि पैसा अब कुछ हाथों में ज्यादा जमा हो रहा हो. बाजार ठप होने से नहीं लगता कि एक आम भारतीय को कहीं से राहत मिल रही है. इस संकट से यह भी साफ हो गया है कि सरकारें मैडिकल सुविधाएं मुहैया करने में असमर्थ हैं. असल में घरपरिवार को हमेशा ही खासी बचत डाक्टरों और वकीलों के लिए रखनी चाहिए. यह ऐसा फंड होना चाहिए जो बेटी की शादी या बच्चों की पढ़ाई पर भी खर्च न हो. लोग अपनी बचत शानदार गाड़ी, बड़ा मकान, बढि़या मोबाइल, एक लंबे हौलीडे टूर पर खर्च करने से नहीं कतराते. यह गलत है. बचत का एक बड़ा हिस्सा मैडिकल या कानूनी आपदाओं के लिए रखा जाना चाहिए. आज कंजूसी में जी लें क्योंकि इन 2 मदों पर जब जरूरत पड़ेगी, मदद को कोई आगे नहीं आएगा.
जो लोग बचत के आधार पर मकान खरीद लेते हैं और उस के लिए कर्ज ले लेते हैं वे कर्ज की भरपाई न कर सकने के चलते अकसर बेघरबार होते दिखते हैं. कर्ज पर ली गई गाडि़यां लौटानी पड़ती हैं. उन के पास मैडिकल या लीगल आपदाओं के लिए पैसा नहीं बचता. अब जरूरी है कि लोग अपना पैसा चाहे नकद या सोने के निवेश में या बैंक में रखें, ताकि 2-3 माह लंबी चलने वाली बीमारी या 2-3 साल चलने वाले कानूनी मुकदमे के बिल पे कर सकें. इस पैसे का उपयोग और किसी काम में न हो. इस सरकार से तो उम्मीद नहीं है, पर आगे की किसी सरकार से कहा जा सकता है कि इस बचत पर मिलने वाला इंट्रैस्ट असल में आय माना ही न जाए. यह सरकार के लिए सुविधाजनक होगा क्योंकि उसे तब जनता के मुफ्त इलाज के लिए अस्पतालों पर कम खर्च करना पड़ेगा.
बचत का यह पैसा हरगिज पंडेपुजारियों, मंदिरों और तीर्थयात्राओं पर खर्च नहीं होना चाहिए. यह बात गांठ में बांध लें.
भक्ति से भस्म की ओर
अंधभक्ति या कैसी भी भक्ति, किसी भी व्यक्ति के लिए सुख व समृद्धि की राह नहीं है. यह एक विडंबना ही है कि भक्ति के बावजूद लगभग 10-12 हजार सालों में मानव ने भरपूर विकास किया है और ज्यादा सुख से जिया है. यह तय करना आज के आधुनिक विशेषज्ञों के लिए भी असंभव है कि बिना भक्ति के मानव का विकास ज्यादा होता या कम. लेकिन यह तय है कि जितना विनाश भक्ति के कारण हुआ है उतना और किसी कारण से नहीं. आज जिस कोविड से दुनिया त्राहित्राहि कर रही है, भक्ति इस से कई गुना ज्यादा दुखों का कारण रही है.
प्राकृतिक प्रकोप हमेशा मानव पर भारी रहे हैं. पर जब से इतिहास लिखा गया है या जब से इतिहास लिखा जा सका है, तब से व आज की खोजों के अनुसार भक्ति ने मानव से शांति के दिनों में, जब प्राकृतिक प्रकोप नहीं थे, ज्यादा बड़ी कीमत वसूली है चाहे वह साधारण टैक्स के रूप में थी या दूसरे धर्म वालों को दी गई यातनाओं व युद्धों के रूप में.
आज भारत को भक्ति के गढ़े में धकेल दिया गया है और हम सब इतने कमजोर हो गए हैं कि कोरोना वायरस के प्राकृतिक प्रकोप के कारण हमारी भक्ति धरी की धरी रह गई है. पूरा देश आज कोरोना का मारा हुआ है और शासक, प्रशासक, पुलिस, जो कुछ सालों से केवल भक्ति के प्रचारप्रसार में लगे थे, हतप्रभ हैं कि क्या किया जाए, कैसे किया जाए.
पिछले साल मार्च में जब इस का कहर सिर पर पड़ा था तो सब भक्ति को छोड़ कर वैज्ञानिकों का मुंह देखने लगे, डाक्टरों, अस्पतालों पर निर्भर दिखे. पर जैसे ही स्थिति ठीक होने लगी, नरेंद्र मोदी और अमित शाह फिर भक्तों के शहंशाह के मूड में आ गए और बजाय कोरोना के फिर से धर्म के प्रचार की तैयारी में लगने लगे. एक छोटे से राज्य पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हराने के लिए रातदिन
एक करने लगे. यह भक्ति का एजेंडा था, हालांकि ममता बनर्जी भक्तविरोधी नहीं हैं.
जब अस्पताल बनने थे, जब स्कूल बनने थे, जब तर्क और तथ्य का पाठ पढ़ाया जाना था, नरेंद्र मोदी ‘‘हमारे शास्त्रों में लिखा है…’’ कह कर प्रवचन देते रहे और उन की सरकार भक्तों की पोल खोलने वालों को देशद्रोही करार देने में लगी रही.
अब कोविड की नई लहर में अस्पताल भर गए हैं क्योंकि पिछले एक साल में नए बने ही नहीं, नए तो मंदिर बने हैं, मूर्तियां बनी हैं, डाक्टर कम पड़ने लगे हैं. पिछले सालों में तो पंडिताई का धंधा सब से ज्यादा चमकाया गया है, सेवा करने वाली नर्सों की कमी हो गई है. मौजूदा सरकार के दौर में असल सेवा तो आश्रमों में हो रही है, मठों में हो रही है, गंगा किनारे हो रही है.