औफिस में घुसते ही सेठ गणपत राव ने सामने कुरसी पर बैठे एकाउंटैंट यशवंत से पूछा, “कोई चैक है?”
“एक नहीं, कई हैं सर,” यशवंत ने मुसकरा कर कहा, “छोटीमोटी रकमों के कुल आधा दर्जन चेक हैं, एक तो काफी बड़ी रकम का है. आखिरकार चौहान ने पैसे दे ही दिए.”

सेठ गणपत राव ने दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में उलझा कर हंसते हुए कहा, “चमत्कार हर युग में हुए हैं. उन्होंने पूरी रकम अदा कर दी है क्या?”

“जी, 50 लाख 59 हजार 6 सौ 40 रुपए का चेक है. पूरी रकम अदा कर दी है.”
“बहुत अच्छा, तब तो तुम बैंक जाने की तैयारी कर रहे होगे? बैंक जा रहे हो तो 20 लाख रुपए निकलवा लेना, मुझे गजेंद्र के यहां जाना है, वहां से लौट कर लोनावला वाली जमीन देखने जाऊंगा. हो सकता है, कुछ एडवांस देना पड़े. चेक पर तुम खुद ही दस्तखत कर लेना. तब तक मैं एक जरूरी काम निपटाए लेता हूं.”
“ठीक है, सर.”

हमेशा से ऐसा ही होता आया था. उन दिनों से जब यशवंत नवयुवक था और यहां काम करने आया था. शुरूशुरू में इस कंपनी में केवल गणपत राव थे और सारा काम वह खुद ही देखते थे. जबकि इस समय उन की कंपनी में काफी लोग काम कर रहे थे. आजकल उन का कारोबार भी काफी अच्छा चल रहा था. वह जिस चीज में हाथ लगा देते थे, वह सोना हो जाती थी.

यशवंत को उन के एकएक पैसे के बारे में पता था. सेठ गणपत राव के पास अरबों की दौलत थी. यशवंत इस बात से हैरान था कि इतनी दौलत का वह करेंगे क्या? दुनिया में उन का एक भी रिश्तेदार नहीं है. आखिर यह दौलत वह किस के लिए जमा कर रहे हैं?

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