लेखक: मदन कोथुनियां
बेगुनाहों पर भीड़ का वहशीपन
बच्चा चोरी के मामले में भीड़ और उस के हमलों का पैटर्न देखें तो पता चलता है कि यह भीड़, दरअसल, उसी भीड़ की एक छिटकी हुई परत है जो कुछ वर्षों पहले गौरक्षा और लवजिहाद के नाम पर अल्पसंख्यकों व दलितों पर टूटी थी.
एक देश के रूप में यह पहली बार नहीं है कि भारत का सिर शर्म से झुक रहा है लेकिन एक भीषण डर और हैरानी जरूर पहली बार है. और इस की वजह है भीड़तंत्र का उभार, पीटपीट कर मार डालने वाली नफरत और बातबेबात भड़क उठती हिंसा.
जनवरी 2019 से ले कर जुलाई 2019 तक बच्चा चोरी की अफवाह के बाद भीड़ की हिंसा के 69 मामले सामने आए हैं. जिन में 33 लोगों को भीड़ ने मार डाला और करीब 100 को घायल किया. हालात की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि महज 2 माह (जुलाईअगस्त) में 16 लोग मारे गए.
जुलाई में पहले 6 दिनों में भीड़ की हिंसा के 9 मामले हुए और 11 लोग मारे गए. इस तरह सिर्फ अफवाहों से बेगुनाहों की जानें जा रही हैं. मार्च 2014 से मार्च 2019 तक सरकार के मुताबिक देश के 9 राज्यों में विभिन्न वजहों से हुई मौब लिंचिग के 140 मामलों में 68 लोग मारे गए और 200 से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गए. लेकिन गैरआधिकारिक आंकड़े इस से कहीं ज्यादा संख्या बता रहे हैं.
सरकार के आंकडे़ बताते हैं कि बच्चा चोरी की वारदातों का अफवाहों से कोई संबंध नहीं है. जिस राज्य में बच्चा चोरी की वास्तविक वारदातें ज्यादा हुई हैं वहां अफवाहों से पैदा हिंसा या मरने वालों की संख्या अपेक्षाकृत उतनी नहीं है, जितनी कि उन इलाकों में जहां सिर्फ अफवाहों ने भीड़ को उकसाया.
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