बीकौम की छात्रा स्मिता भादुड़ी न तो कोई पेशेवर अपराधी थी और न ही किसी थाने में उस के खिलाफ कोई केस दर्ज था. उस का गुनाह महज इतना था कि वह अपने दोस्त के साथ कार में बैठ कर बातें कर रही थी. बदमाशों की सूचना पर वहां पहुंचे तथाकथित बहादुर पुलिस वालों ने जोश में आ कर सरकारी असलहे से गोलियां दाग दीं. एक गोली ने स्मिता का सीना चीर दिया. पुलिस वालों ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि उन के सिर पर ऐनकाउंटर के बदले मैडल और प्रमोशन पाने का जुनून सवार था. बेगुनाह छात्रा की हत्या का मामला सीबीआई को दिया गया. आखिरकार 3 पुलिस वालों को कुसूरवार मान कर उन्हें माली जुर्माने के साथसाथ उम्रकैद की सजा सुनाई गई.

इसे लाचारी, इंसाफ की राह में कानूनी दांवपेंच की चाल कहें या कुछ और, अपनी होनहार बेटी स्मिता को खो चुके परिवार को इंसाफ के लिए 15 साल का लंबा, थकाऊ और पीड़ा देने वाला इंतजार करना पड़ा. ऐनकाउंटर में शामिल पुलिस वाले इस दौरान न केवल आजाद रहे, बल्कि बचने के लिए तरहतरह के हथकंडे अपनाते रहे. इतना ही नहीं, लंबे वक्त में मजे से नौकरी कर के वे अपने पदों से रिटायर भी हो गए.

पुलिस के डरावने चेहरे से रूबरू हुए स्मिता के परिवार के दर्द का हिसाब शायद कोई कानून नहीं दे सकता है. कुसूरवार पुलिस वाले अब सलाखों के पीछे हैं. इस मामले से सीख भी मिलती है कि किसी की जान की कीमत पर मैडल व प्रमोशन पाने की ख्वाहिश देरसवेर सलाखों के पीछे पहुंचा कर भविष्य अंधकारमय भी कर देती है.

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