राखी की जगह कोई और औरत होती तो क्रोध का ज्वालामुखी बन जाती. बेटी अन्नु की बात सुन कर कलेजा फट जाता उस का. लेकिन राखी के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ. वह पत्थर का बुत बनी सामने नजरें झुकाए शांत खड़ी बेटी को टुकुरटुकुर निहारती रही. उस की सांसों में तेजी और गरमी जरूर आई. आंखें भी क्रोध से चहकीं, लेकिन क्रोध होंठों के रास्ते लावा बन कर निकलने के बजाय आंखों के रास्ते आंसू बन कर बहा.

राखी और अन्नु के बीच सन्नाटा छाया था. आंसू दोनों की आंखों में थे. फर्क था तो सिर्फ इतना कि अन्नु के आंसुओं में दर्द था, दयनीयता थी, मजबूरी थी, जबकि राखी के आंसुओं में क्रोध और घृणा के मिलेजुले भाव थे.

पलभर की चुप्पी के बाद खामोशी राखी ने ही तोड़ी. वह साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछ कर गहरी सांस लेते हुए गंभीर स्वर में बोली, ‘‘तो तू मेरी सौत बन गई. मुझे शक तो था, पर मैं यह सोचने की हिम्मत नहीं जुटा सकी कि ऐसा भी हो सकता है.’’

मां की बात सुन कर अन्नु खुद पर काबू नहीं रख सकी. आंसुओं के साथ उस का गला भी रुंध गया. फफक कर रोते हुए वह अंदर चारपाई पर जा कर लेट गई.

राखी का सिर चकरा रहा था. पैरों पर खड़े रहना मुश्किल हो गया तो वह दीवार का सहारा ले कर वहीं बैठ गई.

नरेश कुमार के लौटने तक घर में मरघट सा सन्नाटा छाया रहा. नरेश कुमार रोज की तरह उस दिन भी घर लौटा तो दारू के नशे में था. आंखों में क्रोध की चिंगारी समेटे राखी थोड़ी देर उसे ऐसे देखती रही, जैसे क्रोध की ज्वाला में भस्म कर देगी. लेकिन वह आग उगलती, इस से पहले ही नरेश कुमार ने लड़खड़ाते स्वर में पूछा, ‘‘ऐसे क्या देख रही हो? कभी पहले नहीं देखा क्या मुझे?’’

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