जयपुर के आमेर किले को बड़े कौतूहल से निहारने के बाद मार्था जंतरमंतर के 2 चक्कर लगा चुकी थी. उसे सब कुछ अच्छा तो लगा था, लेकिन कालचक्र की गणना करने वाले यंत्रों में उस की कोई दिलचस्पी नहीं थी. हालांकि उस के दूसरे साथी, पुछल्ले की तरह चिपके हुए गाइड की बातें बड़े गौर से सुन रहे थे. अलबत्ता अखरती धूप अब चुभने लगी थी, जिसे वे लोग हथेलियों से ढांपने की असफल कोशिश कर रहे थे.
मार्था ने उन्हें लौट चलने को कहा भी, लेकिन उन का ध्यान मार्था की तरफ नहीं था. नतीजतन वह गुस्से में पांव पटकती हुई जलेब चौक जाने वाले उस रास्ते की तरफ चली गई, जिस के दोनों ओर दूरदूर तक एंटीक की दुकानों की लंबी कतार थी. मार्था को उधर से गुजरते देख राजस्थानी पोशाक में फंसे हुए से दिखने वाले ‘लपका’ किस्म के लड़के, टूटीफूटी अंगरेजी में दुकानों की तरफ ध्यान बंटाने के लिए उस की तरफ दौड़े भी, लेकिन मार्था ने जब उन्हें आंखें तरेरते हुए उपेक्षित भाव से देखा तो वे वहीं थम गए.
मार्था लगभग एक हफ्ते पहले अपने साथियों के साथ आस्ट्रेलिया से यहां पहुंची थी. दिल्ली होते हुए पहले वे जयपुर आए थे. इस दौरान इस टोली ने जयपुर के तकरीबन सभी टूरिस्ट प्लेसेज देख लिए थे. मार्था की कल्पनाओं में जयपुर राजारानियों का शहर था. पिछले 3 दिनों में उस ने इतिहासकालीन वैभव को जी भर कर देखा. राजस्थानी पोशाक पर उस का मन इतना मचला कि जयपुर पहुंचने के बाद उस ने कई जोड़ी पोशाकें खरीद ली थीं और बदलबदल कर उन्हीं को पहन रही थी. उस समय भी उस ने कांचली और घाघरा पहन रखा था. पोनीटेल की तरह उस के बाल पीठ पीछे बंधे थे.
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