Dr Geetanjali Choudhary
दौड़ती भागती जिंदगी से आजादी कौन नहीं चाहता है? और उसमें भी तब जब आप को ऐसा लगे जिंदगी बहते पानी समान गुजर रही है. वक्त की मसरूफियत का तक़ाज़ा ऐसा मानो सुबह होती शाम होती है, जिंदगी यूँ ही तमाम होती है. सपनों की दुनिया में जीने वाली मुग्धा हमेशा अपने लिए क्वालिटी टाइम की कल्पना करती रहती थी.

वो हमेशा अपनी ही धुन में मगन रहती थी. पति के साथ खुबसूरत लम्हों की आकांक्षा, थोड़ा रोमांस, थोड़ी छेड़छाड़ की कल्पना मात्र से हृदय प्रेम से उन्मत्त हो जाता, तो वहीं मनन का देर से आफिस से घर आना, देर तक सोना और फिर तैयार होकर आफिस चले जाना उसके मन को कसैला कर देता था.

यंत्रवत जिंदगी से मानों एक उब, एक खीज सी पैदा हो गई थी. मुग्धा अपने एकाकीपन में मनन के साथ बैठ कर अपने बगीचे में फूलों की खुशबू को महसूस करना चाहती थी, तो कभी मिट्टी की सौंधी गंध को महसूस करना चाहती थी. कभी फूलों पर परिंदों और तितलियों की अठखेलियों को जीना चाहती थी.पर मनन को फुरसत कहाँ थी? शायद इसलिए जब भी वो तन्हाइयों में अपने आप से साक्षात्कार करती तो हमेशा वक्त के कुछ पलों के रुकने और थम जाने की कल्पना में खो जाती और फिर एक दिन उसके अरमानों को पंख लग गए.
वक्त थम गया. 21 दिनों के लॉकडाउन की सरकार द्वारा घोषणा ने मानो उस के मन की मुराद पूरी कर दी. 21 दिन के दिनचर्या का वृतचित्र चलचित्र की तरह आँखों के सामने तैर गया. पहला दिन छुट्टी की खुमार में बीत गया, घर के काम ऐसे लग रहे थे मानों टाइम पास का साधन हो.पर जैसे जैसे वक्त गुजरता गया सारी रोमानियत हवाओं में मौजूद वाइरस की तरह खतरनाक नजर आने लगी. जिस मनन के यह कहने पर कि" तुम्हारे हाथों में जादू है ".
एक प्लेट के बदले दो प्लेट पकौड़े तल देने वाली मुग्धा को लग रहा था, मानों उसे रसोई में ही बंद कर दिया गया है.घर का सारा काम करते शरीर थकान की सारी सीमाओं का उल्लंघन कर रहा था.
जैसे हिन्दूस्तान की तमाम जनता मित्रों के उद्घोष मात्र से घबराकर लाइन में लग जाती है (चाहे वो बैंक की लाइन हो या किराना दुकान की) , वैसे ही मुग्धा मनन के सुनती हो सुनकर गैस पर कुछ न कुछ चढ़ा आती. मिनटों में फरमाइशों की फेहरिस्त को पका पका कर मुग्धा खुद पक गयी थी.
अब तक जिस एकाकी से परेशान थी. उन्हीं लम्हों को फिर से जीने की उत्कंठा जाग गई थी. वो कहते हैं न दिल ढ़ूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के......

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