एक बार मैं बांदा से ललितपुर लड़कियों की टीम ले कर गई थी. ललितपुर से लौटते समय हमें झांसी से  बांदा के लिए बुंदेलखंड ऐक्सप्रैस पकड़नी थी. जैसे ही हम प्लेटफार्म पर पहुंचे, गार्ड साहब हरी झंडी दिखा चुके थे. गाड़ी चल चुकी थी इतने में मेरी एक छात्रा को कुछ न सूझा, वह चिल्लाई ‘ए हरी झंडी, ए हरी झंडी, हमें भी ले लीजिए’.

लड़कियों को गिरतापड़ता देख कर शायद गार्ड और ड्राइवर को दया आ गई. और गाड़ी रुक गई. हम सभी ट्रेन में चढ़ गए. लड़कियों ने किसी यात्री को तंग न करते हुए जमीन पर चादर बिछा ली और गातेबजाते बांदा आ गए. हमारा बांदा पहुंचना अतिआवश्यक था क्योंकि अगले दिन हमारी एक छात्रा की सगाई होनी थी. रेलवे स्टाफ की भलमनसाहत से हम गाड़ी पकड़ पाए.

डा. मनोरमा अग्रवाल, बांदा (उ.प्र.)

पिछले वर्ष जब मेरी बिटिया की शादी तय हुई तब लड़के वालों ने कहा, ‘‘हमारी कोई मांग नहीं है. हमें केवल लड़की चाहिए. आप की बेटी हमें पसंद है.’’

तब मैं ने कहा, ‘‘हैदराबाद से भोपाल तक का आनेजाने का किराया हम बरातियों को दे देंगे.’’ तब लड़के के पिताजी ने कहा, ‘‘हम अपने घर की बेटी ले जा रहे हैं और हम अपनी बेटी को आप के किराए से ले जाएं, ऐसा नहीं होगा. हम अपनी बेटी को अपने खर्च से ले जाएंगे.’’ यह बात आज तक मेरे कानों में गूंजती है और अपने कहे अनुसार, लड़के वालों ने किराए का भी पैसा नहीं लिया.

दीप्ति सिन्हा, भोपाल (उ.प्र.)

मैं और मेरी सहेली दिल्ली में बस से यात्रा कर रहे थे. हम जब बस में चढ़े तो अंदर काफी भीड़ थी. बस में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर पुरुष यात्री बैठे थे. मेरी सहेली ने नवयुवकों से उठने का अनुरोध किया. बहुत आनाकानी के बाद उन्हें हमें सीट देनी पड़ी. बस अगले स्टौप पर पहुंची ही थी कि बस में बुजुर्ग दंपती चढ़े. मेरी सहेली ने मुझे खड़ा कर वे दोनों सीटें उन्हें दे दीं.

इस पर वे नवयुवक गुस्से से बोले, ‘‘अगर आप को खड़े हो कर ही यात्रा करनी थी तो हम से सीट क्यों ली?’’ तब मेरी सहेली ने कहा, ‘‘आप से सीट लेना हमारा कानूनी अधिकार था और अपने से बड़े बुजुर्गों को सीट देना हमारा नैतिक कर्तव्य. हम सिर्फ अधिकार लेना ही नहीं जानते बल्कि कर्तव्यों का पालन भी ईमानदारी से करते हैं.’’  उस की बात पूरी होने से पहले ही बस में जोरदार तालियां बजने लगीं. मुझे अपनी सहेली पर गर्व हो रहा था.

गार्गी अग्रवाल, शामली (उ.प्र.) 

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...